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[८६] छाया- यथा दीपः गर्भगृहे मारूतबाधाविवर्जितः ज्वलति ।
तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपोऽपि प्रज्वलति ॥ १२३ ।। अर्थ-जैसे भीतर के घर में रक्खा हुआ दीपक हवा की बाधा रहित जलता रहता
है, वैसे ही रागभाव रूपी हवा की बाधारहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता रहता है अर्थात् आत्मा में प्रकाश करता है।। १२३ ।।
गाथा- झायहि पंचवि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए।
रणरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ॥ १२४ ॥ छाया-ध्याय पंचापि गुरून मंगलचतुःशरणलोकपरिकरितान् ।
नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान् ॥ १२४ ।। अर्थ हे मुनि! तू पंच परमेष्ठी का ध्यान कर, जो मंगलरूप हैं। तथा अरहन्त,
सिद्ध, साधु और धर्म ये चारों शरणरूप हैं, लोक में उत्तम हैं, मनुष्य, देव और विद्याधरों के पूज्य हैं, आराधनाओं के स्वामी हैं और वीर हैं ।। १२४ ॥
गाथा-णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण ।
___ बाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ॥ १२५ ।। छाया- ज्ञानमयविमलशीतलसलिलं प्राप्य भव्याः भावेन ।
___ व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवाः भवन्ति ॥ १२५ ।। अर्थ-भव्य जीव सम्यक्त्व रूप भाव के द्वारा ज्ञानमय निर्मल और शीतल जल
को पीकर रोग, जरा, मरण, पीड़ा और दाह (मन की जलन ) से रहित होते हुए सिद्ध होते हैं ॥ १२५॥
गाथा- जह बीयम्मि य दड्डे णवि रोहइ अंकुरोय महिबीढे ।
तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ।। १२६ ।। छाया- यथा बीजे च दग्धे नापि रोहति अंकुरश्च महीपीठे ।
... तथा कर्मबीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम् ।। १२६ ।। अर्थ-जैसे बीज जल जाने पर भूमि पर अंकुर नहीं उगता है, वैसे ही कर्मरूपी