SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [८१] भावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन १० प्रकार के मुनियों की भक्तिपूर्वक सेवा करना सो १० प्रकार का वैयावृत्त्य है ।।१०५॥ गाथा-जं किंचि कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेणं । तं गरहि गुरूसयासे गारव मायं च मोत्तूण ।। १०६ ॥ छाया-यः कश्चित् कृतः दोषः मनोवचःकायैः अशुभभावेन । तं गर्ह गुरूसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा ॥ १०६ ॥ अर्थ हे मुनि । तूने अशुभभाव से मन वचन काय के द्वारा जो कोई दोष किया हो, तु गर्व और माया छोड़कर गुरु के समीप उसकी निन्दा कर ॥ १०६ ।। गाथा--दुजणवयणचडक्कं णित् ठुरकडुयं सहति सप्पुरिसा । कम्ममलणासणटुं भावेण य णिम्ममा सवणा ॥१०७ ॥ छाया-दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः। कर्ममलनाशनार्थ भावेन च निर्ममाः श्रमणः ॥ १०७ ॥ अर्थ-सज्जन मुनीश्वर सम्यक्त्वभाव से ममत्व रहित होते हुए दुर्जनों के निर्दय और कठोर वचनरूपी चपेटोंको कर्ममल का नाश करनेके लिएसहते हैं॥१०७॥ गाथा-पावं खवइ असेसं खमाय परिमंडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुर्व होई ॥ १०८ ॥ छाया-पापं क्षिपति अशेष क्षमया परिमण्डितः च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयः ध्रुवं भवति ॥ १०८।। अर्थ-जो श्रेष्ठ मुनि क्षमा गुण से भूषित है वह समस्त पापों के समुदाय को नष्ट कर देता है और निश्चय से विद्याधर, देव तथा मनुष्यों के द्वारा प्रशंसा __किया जाता है ।। १०८ ॥ . गाथा-इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं । चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह ॥ १०६ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy