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________________ [ ७६ ] गाथा-मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं । इय गाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिचं ॥८॥ .. छाया-मत्स्यः अपि शालिसिक्थः अशुद्धभावः गतः महानरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम् ॥८॥ अर्थ-तन्दुल नामक मच्छ अशुद्ध परिणामी होता हुआ सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। ऐसा जानकर हे भव्य जीव ! तू सदा आत्मा में जिनदेव की भावना कर ॥८॥ गाथा बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थो भावरहियाणं ॥८॥ छाया-बाह्यसंगत्यागः गिरिसरिहरीकंदरादौ आवासः। ___ सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम् ॥ ८ ॥ अर्थ-शुद्ध आत्मा की भावना रहित पुरुषोंका बाह्य परिग्रह त्याग, पहाड़, नदी, 'गुफा, खोह आदि में रहना और सम्पूर्ण शास्त्रों का पढ़ना आदि व्यर्थ है ॥६॥ गाथा-भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणोमक्कडं पयत्तेण । मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ॥१०॥ छाया-भंग्धि इन्द्रियसेनां भंग्धि मनोमर्कट प्रयत्नेन । __मा जनरंजनकरणं बहिब्रतवेष ! त्वं कार्षीः ॥१०॥ अर्थ-हे मुनि ! तू इन्द्रिय रूपी सेना को नाश कर और मन रूपी बन्दर को यत्न पूर्वक वश में कर, तथा बाह्य व्रत को धारण करने वाले ! तू लोगों को प्रसन्न करने वाले कार्य मत कर ॥१०॥ गाथा-णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए । घेइयपवयणगुरूणं करेहिं भत्तिं जिणाणाए ॥६॥ । छाया-नवनोकषायवर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धथा। चैत्यप्रवचनगुरूणां कुरू भक्ति जिनाज्ञया ॥१॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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