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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नारूप बंधते हैं. इससे यह बात सिद्ध हुई कि पूर्वबन्धेहुये द्रव्यकर्मोंका निमित्त पाकर जीव अपनी अशुद्ध चैतन्यशक्तिकेद्वारा रागादि भावोंका कर्ता होता है तब पुद्गलद्रव्य रागादि भावोंका निमित्त पाकर अपनी शक्तिसे अष्टप्रकार कर्मोंका कर्ता होता है। परद्रव्यसे निमित्त नैमित्तिक भाव हैं उपादान अपने आपसे हैं ।
आगे कर्मोंकी विचित्रताके उपादानकारणसे अन्यद्रव्य कर्ता नहीं है पुद्गलही है ऐसा कथन करते हैं।
जह पुग्गलवाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ति । अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ॥ ६६ ॥
___ संस्कृतछाया. यथा पुद्गलद्रव्याणां बहुप्रकारैः स्कन्धनिवृत्तिः ।
अकृता परैर्दृष्टा तथा कर्मणां विजानीहि ॥ ६६ ॥ पदार्थ- [यथा] जैसें [पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंके [बहुप्रकारैः] नानाप्रकारके भेदोंसे [स्कन्धनिवृत्तिः] स्कन्धोंकी परणति [दृष्टा] देखी जाती है. कैसी है स्कन्धोंकी परणति ? [परैः] अन्यद्रव्योंके द्वारा [अकृता] नहिं कियीहुई अपनी शक्तिसे उत्पन्नई है [ तथा] तैसें ही [ कर्मणां ] कोंकी विचित्रता [विजानीहि] जानो । .. भावार्थ-जैसें चन्द्रमा वा सूर्यकी प्रभाका निमित्त पाकर सन्ध्याके समय आकाशमें अनेक वर्ण, बादल, इन्द्रधनुष, मंडलादिक नाना प्रकारके पुद्गलस्कन्ध अन्यकर विना किये ही अपनी शक्तिसे अनेक प्रकार होकर परिणमते हैं, तैसें ही जीवद्रव्यके अशुद्ध चेतनात्मक भावोंका निमित्त पाकर पुद्गलवर्गणायें अपनी ही शक्तिसे ज्ञानावर्णादि आठ प्रकार कर्मदशारूप होकर परिणमतीं हैं।
आगें निश्चयनयकी अपेक्षा यद्यपि जीव और पुद्गल अपने भावोंके कर्ता हैं. तथापि व्यवहारसे कर्मद्वारा दियेहुये सुखदुखके फलको जीव भोगता है यह कथन भी विरोधी नहीं है ऐसा कहते हैं।
जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धाः। काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं दिति भुंजंति ॥ ६७॥
संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः अन्योन्यावगाढग्रहणप्रतिबद्धाः।
__ काले वियुज्यमानाः सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति ॥ ६७ ॥ पदार्थ-जीवाः] जीवद्रव्य हैं ते [पुद्गलकायाः] पुद्गलवर्गणाके पुञ्ज [अन्योऽन्यावगाढग्रहणप्रतिबद्धाः] परस्पर अनादि कालसे लेकर अत्यन्त सघन मिलापसे बन्ध अवस्थाको प्राप्त हुये हैं । वे ही जीव पुद्गल [काले ] उदयकाल अवस्थामें [वियु