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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे यद्यपि पर्यायार्थिक नयसे कथंचित्प्रकारसे द्रव्य उपजता विनशता है, तथापि न उपजता है न विनशता है, ऐसा कहते हैं ।
सो चेव जादि मरणं जादि ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो। उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसुत्तिपजाओ ॥१८॥
संस्कृतछाया. स एव याति मरणं याति न नष्टो न चैवोत्पन्नः ।
उत्पन्नश्च विनष्टो देवो मनुष्य इति पर्यायः ॥ १८ ॥ पदार्थ [ स एव ] वह ही जीव [ याति ] उपजै है, जो कि [ मरणं ] मरणभावसहित [ याति ] प्राप्त होता है. [न नष्टः ] स्वभावसे वही जीव न विनशा है [ च]
और [ एव ] निश्चयसे [न उत्पन्नः] न उपजा है । सदा एकरूप है । तब कौन उपजा विनशा है ? [ पर्यायः] पर्याय ही [ उत्पन्नः ] उपजा [च] और [विनष्टः ] विनशा है । कैसें ? जैसें कि- देवः ] देवपर्याय उत्पन्न हुवा [ मनुष्यः] मनुष्यपर्याय विनशा है [इति ] यह पर्यायका उत्पादव्यय है. जीवको ध्रौव्य जानना।
भावार्थ-जो पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पहिले पिछले पर्यायनिकर उपजता विनशता देखा जाता है, वही द्रव्य उत्पादव्यय अवस्थाके होतेसन्ते भी अपने अविनाशी स्वाभाविक एक स्वभावकर सदा न तो उपजता है और न विनशता है. और जो वे पूर्व उत्तर पर्याय हैं, वे ही विनाशीक स्वभावको धरै है । पहिले पर्यायोंका विनाश होता है अगले पर्यायोंका उत्पाद होता है । जो द्रव्य पहिले पर्यायोंमें तिष्ठता (रहता ) है, वह ही द्रव्य अगले पर्यायोंमें विद्यमान है । पर्यायोंके भेदसे द्रव्योंमें भेद कहा जाता है. परंतु वह द्रव्य जिस समय जिन पर्यायोंसे परिणमता है, उस समय उन ही पर्यायोंसे तन्मय है. द्रव्यका यह ही स्वभाव है जो कि परिणमनसों एकभाव (एकता) धरता है । क्योंकि कथंचित्प्रकारसे परिणाम परिणामी (गुणगुणी )की एकता है । इसकारण परिणामनसे द्रव्य यद्यपि उपजता विनशता भी है, तथापि ध्रौव्य जानना ।
आगे द्रव्यके स्वाभाविक ध्रौव्यभावकर 'सत्'का नाश नही, 'असत्'का उत्पाद नहीं, ऐसा कहते हैं।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो। तावदिओ जीवाणं देवो मणुसोत्ति गदिणामो ॥ १९॥
संस्कृतछाया. एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य नास्त्युत्पादः ।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनामः ॥ १९॥ १ तावदिवो ऐसा भी पाठ है परन्तु हमें दोनोंके भी शुद्ध होनेमें संदेह है.