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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
संस्कृतछाया. द्रवति गच्छति तांस्तान् सद्भावपर्यायान् यत् ।।
द्रव्यं तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः ॥९॥ पदार्थ-[यत् ] जो सत्तामात्रवस्तु [तान्तान् ] उन उन अपने [सद्भावपर्यायान्] गुणपर्यायस्वभावनको [द्रवति गच्छति] प्राप्त होती है अर्थात् एकताकर व्याप्त होती है [तत्] सो [द्रव्यं ] द्रव्यनाम [भणन्ति ] आचार्यगण कहते हैं । अर्थात्द्रव्य उसको कहते हैं कि जो अपने सामान्यस्वरूपकरके गुणपर्यायोंसे तन्मय होकर परिणमे । [तु] हि फिर वह द्रव्य निश्चयसे [सत्तातः] गुणपर्यायात्मकसत्तासे [अनन्यभूतं] जुदा नहीं है।
भावार्थ—यद्यपि कथंचित्प्रकार लक्ष्यलक्षण भेदसे सत्तासे द्रव्यका भेद है तथापि सत्ता और द्रव्यका परस्पर अभेद है। लक्ष्य वह होता है कि जो वस्तु जानी जाय. लक्षण वह होता है कि जिसकेद्वारा वस्तु जानी जाय. द्रव्य लक्ष्य है. सत्ता लक्षण है । लक्षणसे लक्ष्य जाना जाता है। जैसे उष्णतालक्षणसे लक्ष्यस्वरूप अग्नि जानी जाती है । तैसे ही सत्ता लक्षणकेद्वारा द्रव्यलक्ष्य लखिये है अर्थात् जाना जाता है । इस कारण पहिले जो सत्ताके लक्षण अस्तित्वखरूप, नास्तित्वस्वरूप, तीनलक्षणस्वरूप' तीनलक्षणस्वरूपसे रहित, एकस्वरूप और अनेकस्वरूप, सकलपदार्थव्यापी और एक पदार्थव्यापी, सकलरूप और एकरूप, अनन्तपर्यायरूप और एकपर्यायरूप इस प्रकार कहे थे, सो सब ही पृथक् नहीं हैं, एक स्वरूप ही हैं । यद्यपि वस्तुस्वरूपको दिखानेकेलिये सत्ता और द्रव्यमें भेद कहते हैं. तथापि वस्तुस्वरूपसे विचार किया जाय तो कोई भेद नहीं है । जैसे उष्णता और अमि अभेदरूप हैं । आगे द्रव्यके तीन प्रकार लक्षण दिखाते हैं, .
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पाद्वयध्रुवत्तसंजुत्तं । गुणपजयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥१०॥
. संस्कृतछाया. द्रव्यं सल्लक्षणकं उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तं ।
गुणपर्यायाश्रयं वा यत्तद्भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ १० ॥ पदार्थ-[यत् ] जो [ सल्लक्षणकं ] सत्ता है लक्षण जिसका ऐसा है [ तत् ] तिस वस्तुको [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञ वीतरागदेव हैं ते [ द्रव्यं ] द्रव्य [भणन्ति ] कहते हैं [ वा] अथवा [ उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तं] उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त द्रव्यका लक्षण कहते हैं। [वा] अथवा [गुणपर्यायाश्रयं] गुणपर्यायका जो आधार है, उसको द्रव्यका लक्षण कहते हैं।