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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगे पंचास्तिकाय और कालको द्रव्यसंज्ञा कहते हैं:
ते चेव अत्थिकाया ते कालियभावपरिणदा णिचा । गच्छंति दवियभावं परियणलिंगसंजुत्ता॥६॥
- संस्कृतछाया.. तेचैवास्तिकायाः कालिकभावपरिणता नित्याः । . गच्छन्ति द्रव्यभावं परिवर्त्तनलिङ्गसंयुक्ताः ॥ ६॥ पदार्थ-[परिवर्त्तनलिङ्गसंयुक्ताः] पुद्गलादि द्रव्योंका परिणमन सो ही है लिङ्ग (चिह्न) जिसका ऐसा जो काल, तिसकर संयुक्त [ते एव] वे ही [अस्तिकायाः] पंचास्तिकाय [द्रव्यभावं] द्रव्यके स्वरूपको [गच्छन्ति ] [प्राप्त होते हैं. अर्थात् पुद्गलादि द्रव्योंके परिणमनसे कालद्रव्यका अस्तित्व प्रगट होता है । पुद्गल परमाणु एक प्रदेशसे प्रदेशान्तरमें जब जाता है, तब उसका नाम सूक्ष्मकालकी पर्याय अविभागी होता है. समयकाल पर्याय है । उसी समय पर्यायकेद्वारा कालद्रव्य जाना गया है. इस कारण पुद्गलादिकके परिणमनसे कालद्रव्यका अस्तित्व देखने आता है। कालकी पर्यायको जाननेके लिये बहिरंग निमित्त पुद्गलका परिणाम है । इसी अकाय कालद्रव्यसहित उक्त पंचास्तिकाय ही षड्द्रव्य कहलाते हैं । जो अपने गुण पर्यायोंकर परिणमा है, परिणमता है, और परिणमैगा उसका नाम द्रव्य है । ये षड्द्रव्य कैसे हैं कि, त्रैकालिकभावपरिणताः] अतीत, अनागत, वर्तमान काल संबंधी जो भाव कहिये गुणपर्याय हैं उनसे परिणये हैं. फिर कैसे हैं ये षड्द्रव्य ?- [नित्याः] नित्य अविनाशीरूप हैं । भावार्थ-यद्यपि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे त्रिकालपरिणामीकर विनाशीक हैं, परन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा टंकोत्कीर्णरूप (टांकीसे उकेरे हुयेकी समान जैसेका तैसा) सदा अविनाशी हैं।
आगे यद्यपि षड्द्रव्य परस्पर अत्यन्त मिलेहुये हैं, तथापि अपने स्वरूपको छोडते नहीं ऐसा कथन करते हैं:
अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता वि य णिचं सगं सभावं ण विजहंति॥७॥
संस्कृतछाया. अन्योऽन्यं प्रविशन्ति ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य ।।
मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति ।। ७ ।। पदार्थ- [अन्योऽन्यं प्रविशन्ति] छहों द्रव्य परस्पर सम्बन्ध करते हैं, अर्थात् एक दूसरेसे मिलते हैं, और [अन्योऽन्यं] परस्पर एक दूसरेको [अवकाशं] स्थानदान [ददन्ति ] देते हैं. कोई भी द्रव्य किसी द्रव्यको भी बाधा नहीं देता [अपि च ] और [नित्यं] सदाकाल [मिलन्ति ] मिलते रहते हैं. अर्थात् परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप