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भव्य जीवोंके हितार्थ गुणस्थान मार्गणाओंका वर्णन पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे समस्त कथन किया है. पर्यायार्थिक नयको अनेकान्त शैलीसे अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अशुद्ध निश्चय नय तथा व्यवहार नय भी कहते हैं।
उक्त धरसेनाचार्यके समयमें ही एक गुणधर नामा मुनि हुये. उनको ज्ञानप्रवादपूर्वके दशम वस्तुमेंके तृतीय प्राभृतका ज्ञान था. उनसे नागहस्त नामा मुनिने उस प्रामृतको पढा और इन दोनों मुनियोंसे फिर यतिनायक नामा मुनिने उक्त प्राभृतको पढकर उसकी ६००० चूर्णिकारूप सूत्र रचे उन सूत्रोंपर समुद्धरण मुनिने १२००० श्लोकोंमें एक विस्तृत टीका रची. सो इस ग्रन्थको श्रीकुंदकुंद स्वामी अपने गुरु जिनचन्द्राचार्यसे पढकर पूरण रहस्यके ज्ञाता हुये और उस ही ग्रंथके अनुसार कुंदकुंद स्वामीने नाटक समयसार पंचास्तिकायसमयसार प्रवचनसारादि ग्रन्थ रचे. ये सब ग्रन्थ द्वितीयश्रुतस्कन्धके नामसे प्रसिद्ध हैं. इन सबमें ज्ञानको प्रधान करके शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका कथन किया गया है अर्थात् अध्यात्मरीतिसे इन ग्रंथोंमें आत्माका ही अधिकार है इसकारण इस शुद्धद्रव्यार्थिक नयका शुद्धनिश्चयनय वा परमार्थ भी नाम है. इन ग्रंथोंमें पर्यायार्थिक नयोंकी गौणता की गई है. क्योंकि इस जीवकी जबतक पर्यायबुद्धि रहती है तबतक संसार ही है. और जब शुद्धनयका उपदेश श्रवण करनेसे द्रव्यबुद्धि होकर निज आत्माको अनादि अनन्त एक और परद्रव्य तथा परभावोंके निमित्तसे हुये जो निजभाव तिनसे भिन्न आपको जानकर अपने शुद्ध खरूपका अनुभवकर शुद्धोपयोगमें लीन होय तब ही कर्मोंका अभावकर यह जीव मोक्षपदको प्राप्त होता है।
पट्टावलियोंके अनुसार ये कुंदकुंदस्वामी नंदिसंघके आचार्योंमें विक्रम संवत् ४९ में हुए हैं. तथा पभनंदी एलाचार्य गृध्रपिच्छ और वक्रग्रीव ये ४ नाम भी इनहीके प्रसिद्ध किये गये हैं. यद्यपि ये नाम इन ही के हों तो कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु पद्मनंदी आचार्यके बनाये हुये जगत्प्रसिद्ध पद्मनंदि पंचविंशतिका, व जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथ भी इनके बनाये हुये हैं ऐसा नहिं कहा जा सक्ता क्योंकि पद्मनंदी नामके आचार्य कई हो गये हैं. जैसें एक तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिके कर्ता पद्मनंदि हैं जो कि वीरनंदीके शिष्य बलनंदी और बलनंदिके शिष्य पद्मनंदी हैं सो विजयगुरुके निकट वारानगरके शक्तिभूपालके समयमें हुये हैं. दूसरेपद्मनंदिने पंचविंशतिका, चरणसारप्राकृत, धर्मरसायन प्राकृत, ये तीन ग्रंथ बनाये हैं इनका समयादि कुछ प्राप्त नहीं हुवा. तीसरे पद्मनंदी कर्णखेट ग्राममें हुये हैं जिन्होंने सुगन्धदशम्युद्यापनादि ग्रंथ बनाये हैं. चौथे-पद्मनंदी कुंडलपुरनिवासी हुये हैं जिन्होंने चूलिका सिद्धान्तकी व्याख्या वृत्तिनामक १२००० श्लोकोंमें बनायी है. पांचवे-पद्मनंदी विक्रम सं. १३९५ में हुये हैं. छठे पद्मनंदी भट्टारक नामसे प्रसिद्ध हुये हैं जिनकी बनाई रत्नत्रयपूजा देवपूजा पूनाकी दक्षिणकालेज लाइब्रेरीमें प्राप्त हुई हैं. सातवें पद्मनंदी विक्रम संवत १३६२ में भट्टारक नामसे हुये हैं इनकी लघुपद्मनंदी संज्ञा भी है. इनके बनाये हुये यत्याचार, आराधनासंग्रह, परमात्मा प्रकाशकी टीका, निघंट वैद्यक, श्रावकाचार, कलिकुंडपार्श्वनाथविधान, अनन्त कथा, रत्नत्रयकथा आदि ग्रन्थ हैं । इस प्रकार एक नामके धारी अनेक आचार्य हो गये हैं. यह सब नाम हमने पूना लाइब्रेरीकी रिपोर्टोंपरसे संग्रहीत किये हैं- इनमें तथ्य कितना है सो हम नहिं कह सक्ते और न इनका पृथक् २ समय निर्णय करनेका ही कोई साधन है। किंतु इस पंचास्तिकायसमयप्राभृतके कर्ता कुंदकुंदस्वामी जगतमें प्रसिद्ध हैं. इनके बनाये समस्त ग्रन्थोंको दिगम्बरीय श्वेताम्बरीय दोनोंही पक्षके विद्वद्गण प्रमाणभूत मानकर परम आदरकी दृष्टि से इनका स्वाध्याय अवलोकनादि करते रहते हैं अर्थात् ऐसा कोई भी जैनी नहिं होगा जो इनके वचनोंमें अश्रद्धा करता हो।
इन आचार्य महाराजके बनाये हुये ग्रन्थोंके पूर्ण ज्ञाता पुरुषार्थ सिद्धयुपाय तत्त्वसारादि ग्रंथोंके कर्ता अमृतचन्द्रसूरी विक्रम संवत ९६२ में नंदिसंघके पट्टपर हो गये हैं. इन्होंने ही समयप्राभृत ( समयसार
१ इन्होंने ८४ पाहूड (प्राभृत) भी रचे है जिनमेंसे षट् पाहुड तो इस समय प्राप्त हैं। २ यह बात बडौदा प्रान्तके कर्मसद ग्रामके पुस्तकालयस्थ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिकी अंतकी प्रशस्तिमें लिखी है।