________________
श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
संस्कृतछाया.
मूर्त्तः स्पृशति मूर्त्त मूर्त्तो मूर्त्तेन बन्धमनुभवति । जीवो मूर्त्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते ।। १३४ ॥
पदार्थ – [ मूर्त्तः] बंधपर्यायकी अपेक्षा मूर्त्तीिक संसारी जीवके कर्मपुंज [ मूर्त्त ] मूर्त्तीक कर्मको [स्पृशति] स्पर्शन करता है इसकारण [ मूर्तः ] मूर्त्तीक कर्मपिण्ड जो है सो [ मूर्त्तेन] मूर्तीक कर्मपिण्डसे [ बन्धं ] परस्पर बन्धावस्थाको [ अनुभवति ] प्राप्त होता है । [मूर्त्तिविरहितः] मूर्तिभावसे रहित [ जीवः ] जीव [तानि] उन कर्मोंके साथ बन्धावस्थावोंको [गाहति] प्राप्त होता है । [तैः ] उन ही कर्मोंसे [जीवः ] आत्मा जो
सो [ अवगाह्यते] एक क्षेत्रावगाह कर बंधता है ।
९५
भावार्थ — इस संसारी जीवके अनादि काल से लेकर मूर्तीक कर्मोंसे सम्बन्ध है. वे कर्म स्पर्शरसगन्धवर्णमयी हैं । इससे आगामी मूर्त्तकर्मों से अपने स्निग्धरूखे गुणोंके द्वारा बन्धता है, इसकारण मूर्तीक कर्मसे मूर्त्तीकका बन्ध होता है । फिर निश्चयनयकी अपेक्षा जीव अमूर्त्तीक है. अनादिकर्मसंयोग से रागद्वेषादिक भावोंसे स्निग्धरूक्षभावपरिणया हुवा नवीन कर्मपुंजका आस्रव करता है. उस कर्मसे पूर्ववद्धकर्मकी अपेक्षा बन्ध अवस्थाको प्राप्त होता है । यह आपसमें जीवकर्मका बन्ध दिखाया - इसहीप्रकार अमूर्त्तीक आत्माको मूर्त्तीकपुण्यपापसे कथंचित्प्रकार बन्धका विरोध नहीं है । इसप्रकार पुण्यपापका कथन पूर्ण हुवा |
अब आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते हैं.
रागो जस्स पत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्ते णत्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्स आसवदि ॥ १३५ ॥
संस्कृतछाया.
रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः ।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति ॥ १३५ ॥
पदार्थ – [ यस्य ] जिस जीवके [ रागः ] प्रीतिभाव [प्रशस्तः ] भला है [च] और [अनुकम्पासंश्रितः] अनुकम्पाके आश्रित अर्थात् दयारूप [परिणामः] भाव है तथा [चित्ते ] चित्तमें [ कालुष्यं] मलीनभाव [ नास्ति ] नहीं है [ तस्य जीवस्य ] उस जीवके [पुण्यं ] पुण्य [ आस्रवति ] आता है- I
भावार्थ- शुभ परिणाम तीन प्रकारके हैं अर्थात् - प्रशस्तराग १ अनुकम्पा २ और चित्तप्रसाद ३ ये तीनों प्रकारके शुभपरिणाम द्रव्यपुण्यप्रकृतियोंको निमित्त मात्र है इसकारण जो शुभभाव हैं वे तो भावास्रव हैं. तत्पश्चात् उन भावोंके निमित्तसे शुभयो - गद्वारकर जो शुभ वर्गणायें आतीं हैं वे द्रव्यपुण्याखव हैं ।