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________________ ( ८० ) उल्लेख न करनेवाले ज्ञानों में भी रहने के कारण वह उन ज्ञानों का भी विषय होता, परन्तु यह बात नहीं है । इसलिए यह नियम मानना आवश्यक है कि पदार्थ अपने से अभिन्न ही ज्ञान का विषय होता है भिन्न ज्ञान का नहीं, फलतः ज्ञेय और ज्ञान का अभेद अनिवार्य है। (३) प्रकाशमानत्व का अर्थ है-प्रकाशित होना-विदित होना, इस हेतु के अनुसार यह कहा जा सकता है कि ज्ञेय अपने ज्ञान से अभिन्न है क्योंकि ज्ञान के साथ ही वह भी प्रकाशमान होता है, यदि ज्ञेय अपने ज्ञान से भिन्न होता तो ज्ञान का सधर्मा न होकर उसका विधर्मा होता, अर्थात् जब ज्ञान प्रकाशमान है तब शंय को अप्रकाशमान होना चाहिये था, पर ऐसा नहीं है, अतः प्रकाशमानत्वरूप से ज्ञान का सधर्मा होने के कारण ज्ञेय को ज्ञानरूप मानना आवश्यक है। ऊपर वर्णन किए गए तीनों हेतुओं में वह बात नहीं है जो एक वास्तविक हेतु को अपेक्षित होती है, वास्तविक हेतु को पक्ष अर्थात् जिसमें हेतु द्वारा साध्य के सम्बन्ध का निश्चय अपेक्षित हो, तथा साध्य अर्थात् हेतु द्वारा जिसकी सिद्धि वाञ्छित हो, इन दोनों से भिन्न होना चाहिये। एवम् अनुमिति-हेतुद्वारा पक्ष में साध्य के सम्बन्ध का निश्चय, को उसके कारण परामर्श-पक्ष में साध्यव्याप्य अर्थात् साध्य के नियत सहचारी के रूप से हेतु का निश्चय-पक्ष साध्यकी व्याप्तिसे विशिष्ट हेतुका आश्रय है, इस प्रकार का निश्चय-से भिन्न होना चाहिये, क्योंकि एक ही पदार्थ स्वयं पक्ष, साध्य तथा हेतु नहीं हो सकता तथा वही पदार्थ अपना कारण अथवा कार्य नहीं हो सकता। परन्तु विज्ञानवादी के मत में ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर अभेद होने के कारण पक्ष, साध्य और हेतु में एवम् अनुमिति और परामर्श में परस्पर अभेद हो जाता है। क्योंकि ज्ञान और ज्ञेय की अभिन्नता के सिद्धान्त के अनुसार परामर्श का विषय होने से पक्ष. साध्य और हेतु को परामर्श की अभिन्नता प्राप्त होती है और एक परामर्श से अभिन्न होने के कारण उन्हें परस्पर में भी अभिन्न होने को बाध्य होना पड़ता है, क्योकि उन तीनों में परस्पर भिन्नता रहने पर उनमें एक परामर्श की अभिन्नता बन नहीं सकती। इसी प्रकार अनुमिति भी परामर्श से अभिन्न बन जाती है क्योंकि वह भी उक्त प्रकार से परामर्श से अभिन्नता प्राप्त किए हुए अपने विषयभूत पक्ष तथा साध्य की अभिन्नता के परवश है । इस प्रकार अनुमिति एवं परामर्श में ऐक्य हो जाने के कारण उनमें कार्यकारणरूपता नहीं बन सकती तथा पक्ष, साध्य एवं हेतु में परस्पर अभिन्नता हो जाने के नाते उनमें पक्षरूपता, साध्यरूपता तथा हेतुरूपता नहीं बन सकती। अतः ज्ञान और ज्ञेय का अभेद नहीं माना जा सकता ।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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