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________________ वस्तु को देखने का प्रयत्न करता है, वह वस्तु के कतिपय अंशों को ही देखकर अपने को कृतकृत्य नहीं मानता किन्तु वह वस्तु के समग्र स्वरूप का आकलन करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि वस्तु के किसी आंशिक सौन्दर्य से चकित हो पथभ्रष्ट नहीं होती, किन्तु उसके सम्पूर्ण स्वरूप को देखने के लिये आकुल रहती है । हरिभद्रसूरि के वचनों में जैनदर्शन की यह धारणा है आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् ।। आग्रही मनुष्य की बुद्धि जब एक बार किसी बात को पकड़ लेती है तब वह उसी की पुष्टि में युक्तियों का प्रयोग करता है, किन्तु जो निष्पक्ष और अनाग्रही होता है उसकी बुद्धि युक्ति का अनुगमन करती है, युक्तियां वस्तु का जो स्वरूप प्रस्तुत करती हैं, निष्पक्ष विचारक उसीको स्वीकार करता है। किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतन्त्र दृष्टि से वस्तु को देखने की तथा उसके सम्बन्ध में अन्यान्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझने और उन्हें उचित मान्यता प्रदान करने की प्रवृत्ति ही जैन दर्शन की जन्मस्थली है, इस प्रवृत्ति ने ही अनेकान्तवाद की सुषमा और स्याद्वाद के सौरभ से उसे सुन्दर और सुवासित बनाया है, इस प्रवृत्ति ने ही उसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य रूप रत्नत्रय की उपलब्धि करायी है. इस प्रवृत्ति ने ही उसे विभिन्न दर्शनों के विचारद्वन्द्व में समन्वय और सामञ्जस्य स्थापित करने के लिये मध्यस्थ के महान् पद पर बिठाया है, इस प्रवृत्ति ने ही उसे सर्वात्मसमता, अपरिग्रह और अहिंसा की भावना से भरकर मानवता की सेवा करने का सौभाग्य प्रदान किया है। इसी प्रवृत्ति ने उसे वह अनुपम तत्त्वज्ञान दिया है जो किसी भी विचारक की दृष्टि को अपनी ओर बरबस आकृष्ट करता है, जैनदर्शन की इस प्रवृत्ति ने ही उसके अध्ययन के लिये मुझे प्रेरित किया तथा न्यायखाद्यखण्डन जैसे महत्त्वपूर्ण जैनग्रन्थ की व्याख्या लिखने को प्रवृत्त किया । आशा है, इस व्याख्या से न केवल सामान्य जिज्ञासुओं को ही लाभ पहुंचेगा अपि तु इससे विद्वज्जनों को भी कुछ नूतन प्राप्ति और पर्याप्त मनस्तुष्टि होगी। वाराणसी। बदरीनाथ शुक्ल १९६६ ।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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