SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५१ ) होता है, नाश में न भाव का तादात्म्य है और न उसकी कारणता ही है अतः वह भाव का व्यापक नहीं माना जा सकता । न्यायमत में भी नाश की भाव व्यापकता नहीं बन सकतीं क्योंकि उस मत में नियत सहभाव हो व्याप्यव्यापकभाव का व्यवस्थापक है और वह भाव और नाश में है नहीं, क्योंकि उन दोनों में कालिक विरोध होने के नाते सहभाव नहीं हो सकता । ( ५ ) भाव का नाश अभाव - रूप है - भाव-नाश की ध्रुवभाविता का यह पांचवा अर्थ मानने का भाव यह है कि जो अभाव रूप होता है वह अजन्मा होता है जैसे प्रागभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव । और जो अजन्मा होता है वह कारणनिरपेक्ष होता है, और जो कारणनिरपेक्ष होता है उसके अस्तित्वलाभ में कोई विलम्ब नहीं होता, ऐसी स्थिति में भाव का नाश जब अभावरूप माना जायगा तो अजन्मा होगा, अजन्मा होने से कारण-निरपेक्ष होंगा, कारण-निरपेक्ष होने से अस्तित्वलाभ से एक क्षण भी वञ्चित नहीं रह सकेगा, फलतः भावमात्र जन्म पाते ही अभाव ग्रस्त हो उठेगा, अतः कोई भी भाव स्थायी न हो सकेगा । परन्तु यह पक्ष भी विचार-संगत नहीं है क्योंकि नाश को अजन्मा मानने पर यह प्रश्न उठता है कि नाश का उसके प्रतियोगी भाव के साथ विरोध है या नहीं ? यदि नहीं तो भाव के अनेक क्षणों में रहने का कोई व्याघातक न होने से अनेक क्षण तक उसकी स्थिति का प्रसङ्ग होगा, और यदि विरोध है तो प्रश्न उठता है कि भाव का नाश भाव जन्म के पहले है या नहीं ? यदि नहीं, तो जो पहले से नहीं है और अजन्मा है उसका बाद में अस्तित्व न होगा । - परिणामतः भावमात्र अविनाशी हो जायगा । और यदि भावनांश भावोदय के पहले से रहता है यह माना जायगा तो प्रश्न यह उठेगा कि भाव-नाश भावजन्म का विरोधी है या नहीं ? यदि नहीं तो नष्ट का भी जन्म होना चाहिये, और यदि विरोधी है तो पहले भी भाव का जन्म न होना चाहिये, क्यों कि भाव-जन्म का विरोधी भावनाश पहले से ही विद्यमान है । इतने विचार का निष्कर्ष यही है कि नाश को अजन्मा या अहेतुक मान कर भाव-जन्म के दूसरे क्षण में भाव-नाश के अस्तित्व -लाभ का समर्थन नहीं किया जा सकता । जिस भाव से उसके दूसरे क्षण में जो कार्य उत्पन्न होता है वही उस भाव का नाश है, प्रत्येक भाव से उसके दूसरे क्षण में कोई न कोई कार्य उत्पन्न होता
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy