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________________ जैसे कालभेद से भी एक द्रव्य में ह्रस्व और दीर्घ दो परिमाणों का अस्तित्व नैयायिक को मान्य नहीं है उसी प्रकार कालमेद से उक्त धर्मो का भी एक व्यक्ति में सन्निवेश मान्य नहीं होना चाहिये। क्योंकि कालभेद में यदि अविरोध के सम्पादन का कौशल होता तो उससे दो परिमाणों में मी विरोध का परिहार हो जाता। पर ऐसा नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि कालभेद से एक व्यक्ति । परस्परविरोधी धर्मो का आश्रय नहीं हो सकता । इस शङ्का का नैयायिक इस प्रकार समाधान करते हैं कि कालभेद में विरोधपरिहार करने की क्षमता अवश्य है, किन्तु जहां विरोधपरिहार का कोई बाधक रहता है वहां पर उसका सम्पादन नहीं करता। दो परिमाणों का एक द्रव्य में कालभेद से सहभाव नहीं माना जा सकता क्योंकि किसी द्रव्य के पुराने अवयवों का बहिर्भाव या नये अवयवों का अन्तर्भाव विना हुये उसमें परिमाणान्तर का उदय या अनुभव नहीं होता, और जब पुराने अवयवों का बहिर्भाव या नये अवयवों का अन्तर्भाव होगा तो पहले द्रव्य का नाश अवश्य हो जायगा। जिन अवयवों को अलग होना है उनका अवस्थित अवयवों से विभाग और उनके प्राथमिक परस्पर-संयोग का नाश अवश्यम्भावी है, और यह सम्भव नहीं कि अवयवसंयोग का नाश होने पर भी द्रव्य बना रहे क्योंकि अवयवसंयोग का नाश ही द्रव्य का नाशक होता है । इसी प्रकार द्रव्य की पूर्वरचना के ज्यों के त्यों रहते हुये नये अवयवों का अन्तर्भाव और उससे परिमाण का परिवर्तन सम्भव नहीं है । क्योंकि भूमि पर पड़े हुए दण्ड आदि द्रव्यों में उसी प्रकार के द्रव्यान्तर का संयोग होने पर भी उनमें नये अवयवों के अन्तर्भाव या परिवर्तित परिमाण का अनुभव किसी को नहीं होता। इस प्रकार किसी द्रव्य में परिमाण का परिवर्तन होने के पूर्व उसका नाश अनिवार्यरूप से हो जाता है। अतएव एक द्रव्य में कालभेद से दो परिमाणों का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । एक व्यक्ति में दो परिमाणों के सहभावका सम्पादन करने में कालभेद की असमर्थता देखकर उसकी सार्वत्रिक असमर्थता की कल्पना उचित नहीं है। क्योंकि एक व्यक्ति में एक कार्य की उत्पादकता और अनुत्पादकता का कालभेद से सन्निवेश मानने में कोई बाधक नहीं है। अतः उस कार्य के सभी उत्पादकों को उसके सभी अनुत्पादकों से भिन्न बताना युक्तिसङ्गत नहीं है। अनेकान्तवादी जैन तो उक्त शङ्का की जड़ ही काट देते हैं। क्योंकि वे आश्रयनाश को परिमाण का नाशक न मान कर कालमेद से एक व्यक्ति में ही दो परिमाणों का अस्तित्व मान लेते हैं। पूर्वद्रव्य के अवस्थित रहते पुराने
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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