SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६ ) इन दोनों प्रकार के विरोधों की उपपत्ति तीन प्रकार से होती है । वे प्रकार यह हैं (१) परस्पराभावरूपता, (२) परस्पराभावापादकता और (३) परस्परभिन्नता। परस्पराभावरूपता-एक को अन्य का अभावरूप होना, जैसे नित्यत्व और अनित्यत्व एक दूसरे का अभावरूप होने के कारण परस्पर विरुद्व हैं । परस्पराभावापादकता-एक दूसरे के अभाव का व्याप्य होने के कारण एक दूसरे के अभाव का आपादक होना, जैसे शैत्य उष्णाभाव का व्याप्य होने के कारण उष्णाभाव का और उष्ण शैत्याभाव का व्याप्य होने के कारण शैत्याभाव का आपादक होता है, अतः शैत्य और उष्ण परस्पर विरुद्ध हैं। परस्परभिन्नता-वस्तुओं का आपसी भेद । जैसे दण्ड और कुण्डल में परस्पर भिन्नता है अतएव उनमें विरोध है, अर्थात् दण्डविशिष्ट में कुण्डल का अस्तित्व या कुण्डलविशिष्ट का तादात्म्य एवं कुण्डलविशिष्ट में दण्ड का अस्तित्व या दण्डविशिष्ट का तादात्म्य नहीं है, क्योंकि विशेषण और विशेष्य दोनों में आश्रित होने वाला पदार्थ ही विशिष्ट में आश्रित हो सकता है, जैसे रक्तता और दण्ड दोनों मे आश्रित दृश्यमानता रक्तदण्ड में आश्रित होती है, दण्ड और कुण्डल परस्पर में आश्रित नहीं हैं अतः वे परस्पर-विशिष्ट में आश्रित नहीं होते। अब देखना यह है कि करण और अकरण में कालगत विरोध है या देशगत, और यदि किसी प्रकार का विरोध है तो उक्त प्रकारों में कौन सा प्रकार उसका बीज है। क्षणभङ्गवादी के मन में सामान्य अकरण-उत्पादकता का सामान्याभाव किसी वस्तु का धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि जो किसी का उत्पादक नहीं होता वह कोई वस्तु नहीं होता किन्तु अलीक होता है । अतः सामान्य अकरण का विरोध करण के साथ नहीं माना जा सकता। हाँ, तत्कार्य के करण के साथ विरोध की सम्भावना की जा सकती है, अर्थात् एक कार्य की उत्पादकता और अनुत्पादकता में विरोध माना जा सकता है, अतः उसी विरोध के विषय में विचार करना है कि वह किमात्मक और किम्मूलक है ? तत्कार्य का करण और तत्कार्य का अकरण ये दोनों धर्म परस्पराभावरूप हैं । अतः उनमें परस्पराभावरूपतामूलक विरोध प्राप्त है, किन्तु काल या देश किसी भी दृष्टि से वह सम्भव नहीं है। क्योंकि उनमें कालगत विरोध तो क्षणभङ्गवादी भी नहीं मानते । जैसे जिस काल में क्षेत्रस्थ बीज में अङ्करकरण-अङ्कर की उत्पादकता है उसी काल में पाषाण कण में अङ्कराकरण-अङ्कर की
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy