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________________ ( २४ ) कारणता को कार्यता का भी अङ्कुरसामान्य की कार्यता के रूप में व्यवहार किया जाता है और जब उस कारणता का विशेषकारणता के रूप में व्यवहार होता है तब उसकी कार्यता का तत्तत् अङ्कुर की विशेष कार्यता के रूप में व्यवहार किया जाता है । ऐसा मानने पर अङ्कुरसामान्य या अंकुर विशेष की आकस्मिकता नहीं प्राप्त होती, क्योंकि सामान्यरूप से ( अङ्कुरत्वरूप से ) तत्तत् अङ्कुर की कार्यता एवं सामान्यरूप से ( बीजत्वरूप से ) तत्तत् बीज की कारणता के ज्ञान से ही अर्थात् अङ्कुर बीज का कार्य है या बीज अङ्कुर का कारण है, इस प्रकार के ज्ञानसे ही तत्तत् अङ्कुरं या अङ्कुरसामान्य का जनन करने के इच्छुक मनुष्य की प्रवृत्ति होती है । परन्तु ऐसा स्वीकार करने पर भी यह दोष रह ही जायगा कि एक ही बीज सामान्यरूप से अङ्कुरसामान्य का कारण और अङ्कुरविशेष का अकारण एवं विशेषरूप से अङ्कुरविशेष का कारण और अङ्कुरसामान्य का अकारण होगा । इस प्रकार एक ही बीज में एक ही कार्य की कारणता और अकारणता दोनों माननी होंगी । किन्तु यह बात बौद्ध और नैयायिक आदि स्थैर्यवादी दोनों ही को मान्य नहीं हो सकती क्योंकि दोनों एकान्तवादी हैं । इसीलिये इस पद्य जैनशासन महामन्त्र उस स्याद्वाद के प्रयोग की प्रशंसा की गयी है जिसका प्रयोग करनेवाले व्यक्ति के सम्मुख ऐसी अमान्य मान्यता की विभीषिका कभी नहीं खड़ी हो सकती । एकत्र नापि करणाकरणे विरुद्धे भिन्नं निमित्तमधिकृत्य विरोधभङ्गात् । एकान्तदान्तहृदयास्तु यथाप्रतिज्ञं किञ्चिद् वदन्त्यसुपरीक्षितमत्वदीयाः || १३ | यद्यपि एक व्यक्ति में भी करण और अकरण - किसी कार्य की उत्पादकता और अनुत्पादकता के अस्तित्व में कोई विरोध नहीं होता क्योंकि निमित्तभेद से उसका परिहार हो जाता है । अतः बौद्ध का एकमात्र क्षणिकता का पक्ष युक्तिसंगत नहीं है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि नैयायिक का एकान्त स्थिरतापक्ष न्याय्य है क्योंकि एकान्तवाद ने जिनके हृदय पर अधिकार स्थापित कर लिया है ऐसे सभी लोग आपके अनुशासन का लङ्घन कर अच्छे प्रकार परीक्षा किये विना ही कुछ अपूर्ण एवं अनिश्चित बात कहा करते हैं । तात्पर्य यह है कि वस्तु न तो केवल क्षणिक है और न केवल स्थिर, प्रत्युत भेद से क्षणिकता और स्थिरता दोनों को ही वस्तु का धर्म मानना उचित है।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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