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(१८० ) आदर्शस्वरूप है। भगवान महावीर के. केवलज्ञान में उसका यही स्वरूप स्फुरित हुआ है। गुणैः पर्यायैर्वा तव जिन ? समापत्तिघटना- .
दसौ त्वद्रपः स्यादिति विशदसिद्धान्तसरणिः । अतस्त्वद्धयानायाध्ययनविधिनाम्नायमनिशं
समाराध्य श्रद्धां प्रगुणयति बद्धाञ्जलिरयम् ।। १०३ ११ जैन शासन का यह सुस्पष्ट सिद्धान्त है कि जो। मनुष्य गुणों और पर्यायों के रूप में भगवान् जिन के साथ अपने तादात्म्य का सतत अनुध्यान करता है वह भगवान् के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । इस लिये प्रकृत ग्रन्थ के रचयिता श्रीयशोविजयगणि आगम का विधिपूर्वक अध्ययन कर बद्धाञ्जलि हो अहर्निश अपनी श्रद्धा का संभरण करने में संलग्न हैं जिससे वे अपेक्षित रूप में भगवान् का ध्यान कर सके।
विवेकस्तत्त्वस्याप्ययमनघ ! सेवा तव भव.
स्फुरत्तष्णावल्लीगहनदहनोद्दाममहिमा | हिमानीसम्पातः कुमतनलिने सज्जनरशां
सुधापूरः क्रूरग्रहगपराधव्यसनिषु ॥ १०४ ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के रूप में तत्त्व का यह विवेचन अघमुक्त भगवान महावीर की सेवा है । संसार में निरन्तर पनपने वाली तृष्णालता के जंगल को जलाने वाला असाधारण सामर्थ्यशाली अग्नि है । कुमतरूपी कमल के लिये हिमपात है। सज्जनों के नेत्र को निर्मल बनाने वाला अमृत का पूर है। जैन शासन के उल्लङ्घन रूप अपराध के व्यसनो जनों के लिये क्रूर ग्रह की विपत्कारी दृष्टि है।
कुतर्केस्तानामतिविषमनैरात्म्यविषयैः
स्तवैव स्याद्वादस्त्रिजगदगदङ्कारकरुणा । इतो ये नैरुज्यं सपदि न गताः कर्कशरुज.
स्तदुद्धारं कत्तुं प्रभवति न धन्वन्तरिरपि ॥ १०५ ॥ अनात्मवाद के अत्यन्त कठोर कुतर्को से जो लोग पीड़ित हैं उनके लिये भगवान् महावीर का स्याद्वाद ही तीनों लोकों को नैरुज्य प्रदान करने वाला अनुग्रहपूर्ण औषध है । अतः जो कठिन रोगी इस स्याद्वाद से तत्काल नीरोग नहीं हो पाते उनकी चिकित्सा आदिवैद्य धन्वन्तरि भी नहीं कर सकते ।