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________________ ( १७२ ) व्यभिचार नहीं होता । सीपी में चांदी के ज्ञान से होने वाली चांदी प्राप्त करने की क्रिया सम्यक् क्रिया नहीं है, अतः उसमें फलप्राप्ति का व्यभिचार होने से भी कोई हानि नहीं है । इस पर यदि यह कहा जाय कि क्रिया में सम्यक्त्वरूप विशेष तो क्रिया के हेतुभूत ज्ञान से ही आता है, अतः सम्यक् क्रिया की अपेक्षा उसे उत्पन्न करने वाले ज्ञान को ही श्रेष्ठ मानना चाहिये तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रिया में सम्यक्त्व की सिद्धि ज्ञान से ही होती है, इस बात में कोई विनिगमक-प्रमाण नहीं है । क्योंकि ज्ञान से यदि सम्यक् क्रिया का उदय होता तो असम्यक् ज्ञान से भी होता, पर असम्यक् ज्ञान से सम्यक् क्रिया का उदय नहीं होता । इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि सम्यग् ज्ञान भी तो ज्ञान ही है, अतः उसे सम्यक क्रिया का कारण मानने पर भी क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की श्रेष्ठता अपरिहार्य है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात तब ठीक होती जब ज्ञान का सम्यक्त्व क्रिया के विना ही सम्पन्न होता, पर यह बात है नहीं, यतः सम्यक् प्रकार से अवलोकन आदि क्रिया से ही वस्तु के सम्यग् ज्ञान का उदय होता है, अतः ज्ञान के सम्यक्त्व के भी मूल में क्रिया की ही अपेक्षा होने से क्रिया की ही श्रेष्ठता समुचित है । यदि यह कहा जाय कि ज्ञान भावरूप होता है और क्रिया द्रव्य रूप होती है, और भाव और द्रव्य में भाव की ही प्रधानता सर्वमान्य है, अतः द्रव्यरूप क्रिया की अपेक्षा भावरूप ज्ञान की ही प्रधानता मानना उचित है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भजना - स्याद्वाद की उपेक्षा कर एकान्ततः ज्ञान को भावात्मक और क्रिया को द्रव्यात्मक नहीं माना जा सकता, किन्तु ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया द्रव्यरूप और ज्ञानसापेक्ष क्रिया भावरूप, इसी प्रकार क्रियानिरपेक्ष ज्ञान द्रव्यरूप और क्रियासापेक्ष ज्ञान भावरूप होता है, यही बात मान्य है । फिर जब ज्ञान और क्रिया दोनों द्रव्य भाव उभयात्मक हैं तो द्रव्यभावात्मकता की दृष्टि से ज्ञान को क्रिया की अपेक्षा प्रधान कैसे कहा जा सकता है । यदि कहा जाय कि ज्ञान मोक्ष का अन्तरङ्ग कारण है और क्रिया बहिरङ्ग कारण है अतः मोक्ष की सिद्धि में ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्यों कि उन दोनों की अन्तरङ्गता और बहिरङ्गता भी एकान्तरूप से मान्य नहीं है, किन्तु योगरूप से दोनों बहिरङ्ग भी हैं और उपयोग रूप से दोनों अन्तरङ्ग भी हैं, अतः जब यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान अन्तरङ्ग ही होता है और क्रिया बहिरङ्ग ही होती है तब अन्तरङ्ग बहिरङ्ग की दृष्टि से एक को अन्य की अपेक्षा प्रधानता कैसे दी जा सकती है ।
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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