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सकेगा, फलतः जान बूझ कर हिंसा में प्रवृत्ति अथवा हिंसा से निवृत्ति की उपपत्ति न होगी और उस के अभाव में अपराधनिर्णय तथा दण्ड आदि की व्यवस्था का कार्य न हो सकेगा।
इसी प्रकार आत्मा यदि एकान्त रूप से अनित्य होगा, तो प्रतिक्षण में उसका नाश स्वतः होते रहने से किसी को उसकी हिंसा का दोष न होगा, यदि यह कहा जाय कि आत्मा के क्षणिकत्वमत में केवल एक क्षण तक ही ठहरने वाला कोई एक व्यक्ति ही जीव नहीं है अपि तु क्रम से अस्तित्व प्राप्त करने वाले ऐसे अनगिनत क्षणिक व्यक्तियों का जो सन्तान-समूह होता हैं, वह एक जीव होता है, उस सन्तान के भीतर का एक एक व्यक्ति तो क्षणिक अवश्य होता है पर स्वयं वह सन्तान क्षणिक नहीं होता है, अतः उस सन्तान का प्रतिक्षण स्वतः नाश न होने के कारण उस सन्तान का नाश करने वाले को हिंसा का दोष लग सकेगा. तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कृतहान-पूर्व जन्म में किये गये कर्म की निष्फलता और अकृताभ्यागम-नये जन्म में कर्म किये विना ही फल की प्राप्ति रूप दोषों से बचने के लिये एक जन्म के एक जीवसन्तान का मृत्यु से नाश और नये जन्म में नितान्त नूतन जीवसन्तान का उदय नहीं माना जा शकता, फलतः मृत्यु से एक सन्तान का नाश और जन्म से नूतन सन्तान का उदय मान्य न होने से सन्ताननाश को हिंसा नहीं कहा जा सकता, यदि यह कहा जाय कि एक शरीर-सन्तान के साथ एक जीव-सन्तान के सम्बन्ध का नाश हिंसा है तो आत्मा के एकान्त नित्यत्वपक्ष में शरीर के साथ आत्मा के विशिष्ट सम्बन्ध के नाश को हिंसा मानने में जो दोष बताया गया है उससे इस मत में भी मुक्ति नहीं मिल सकती।
श्लोक के उत्तरार्ध में ग्रन्थकार का कथन यह है कि उपर्युक्त रीति से आत्मा की एकान्त नित्यता और एकान्त अनित्यतामतों के दोष ग्रस्त होने से भगवान् महावीर ने आत्मा के विषय में जो अपना यह मत बताया है कि भजना-स्याद्वाद के कवच से सुरक्षित, नित्यानित्यात्मक निर्मल चित्स्वरूप ही आत्मा का स्वरूप है, वही श्रेष्ठ मत है, उसमें किसी प्रकार के दोष का अवकाश नहीं है।
एताहगात्ममननं विनिहन्ति मिथ्या
शानं सवासनमतो न तदुत्त्थबन्धः । कमान्तरक्षयकरं तु पर चरित्रं
निर्बन्धमात्थ जिन ! साधु निरुद्धयोगम् ॥ ७८ ॥ ___ इस श्लोक में यह बात बताई गई हैं कि मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान अथवा केवल क्रिया से नहीं होती अपि तु दोनों के समुच्चय से होती है,