________________
(5)
1
तीसरे ( कुर्वद्रूपत्व ) को सामर्थ्य शब्द से ग्रहण करने पर स्थैर्यवादी की प्रतिकूल मान्यता से तर्क और विपरीतानुमान इन दोनों की प्रवृत्ति न होगी । तात्पर्य यह है कि बौद्ध - यद्यपि कुर्वद्रूपत्व की सत्ता मानते हैं पर उचित प्रमाण न होने के कारण नैयायिक उसे नहीं मानते अतः उनके मत से दृष्टान्त - क्षेत्रस्थ बीज - में उसका ज्ञान न हो सकने से आपादक की असिद्धि होने के नाते तर्क का एवं न्यायमत में अलीक का अभाव न माने जाने के कारण कुर्वद्रूपत्वाभाव-रूप साध्य की असिद्धि होने से विपरीतानुमान का व्याघात होगा ।
कुर्वद्रूपत्व के साधनार्थ बौद्ध का एक प्रयास
वस्तु के दो स्वभाव प्राप्त होते हैं- अक्षेपकारित्व शीघ्रकारित्व और क्षेपकारित्व- बिलम्बकारित्व । इनमें से दूसरे को वस्तुस्वभाव के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि स्वभाव अपने आधारव्यक्ति का परित्याग कभी नहीं करता अतः वस्तु के अन्तिम क्षण तक उसकी विलम्बकारिता बनी ही रहेगी, फलतः उसका कार्य कभी भी उत्पन्न न हो सकेगा, अत एव शीघ्रकारित्व को ही वस्तु का स्वभाव मानना होगा। इस स्वभाव की सिद्धि के लिये निम्न तर्क और विपरीतानुमान का आश्रय लेना चाहिये । तर्क
बीज यदि शीघ्र ही अर्थात् पैदा होते ही अङ्कुर का उत्पादक न होगा तो अङ्कुर को कदापि पैदा न कर सकेगा क्योंकि जो जिस कार्य को शीघ्र ही नही कर डालता वह उसे कभी नहीं कर पाता जैसे धूल का पैदा होते ही अङ्कुर का उत्पादक नहीं होता अतः उसे पैदा करता ।
कण शीघ्र अर्थात् कभी भी नहीं
विपरीतानुमान -
बोज अङ्कुर के प्रति शीघ्रकारी है क्योंकि वह अङ्कुर को पैदा करता है । इस प्रकार बीज आदि वस्तुओं का शीघ्रकारित्व स्वभाव सिद्ध होता है । यह स्वभाव बीजसामान्य को अङ्कुर का कारण मानने पर नहीं उपपन्न होता क्योंकि कुसूलस्थ बीज अबिलम्बेन अङ्कुर का जनन नहीं करता, इसलिये अङ्करकुर्वद्रूपत्व जिन बीजों में रहता है उन्हीं को अङ्कुर का कारण मानना होगा और वह अविलम्बेन अङ्कुर को पैदा करने वाले क्षेत्रस्थ बीजों में ही माना जायगा, इस प्रकार उक्त स्वभाव के नियामकरूप में कुर्वद्रूपत्व की सिद्धि होगी ।