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________________ ( १३८ ) आत्मा के उक्त स्वरूप की आलोचना करते हुये बौद्धों का कथन यह है कि गुण से भिन्न गुणी की सत्ता अप्रामाणिक तथा अनावश्यक है । देश, काल के व्यवधान से शून्य गुणों का समूह ही द्रव्य है और समूह ही अपने अन्तर्गत गुणों का आश्रय होता है । इस मान्यता के अनुसार आत्मा भी कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है अपितु ज्ञान आदि गुणों का क्षणिक समुदाय अथवा क्षणिक आलय विज्ञान-'अहम्' इत्याकारक ज्ञान का प्रवाह-रूप है। आत्मा का यह स्वरूप प्रमाण-संगत तथा संसार के विषयों में मनुष्य की अयासक्ति का निरोधक है, अत एव आत्मा का यह स्वरूप ही मान्य एवं उपादेय है । ___इस बौद्ध मत के विरोध में न्याय दर्शन की ओर से यह बात कही जाती है कि द्रव्य और आत्मा के विषय में बौद्धों की उक्त मान्यता लोकानुभव के विपरीत होने के कारण आदरणीय नहीं हो सकती । लोक में इस प्रकार का अनुभव सर्वसम्मत है कि 'जिस वस्तु को मैंने पहले देखा था, इस समय मैं उसका स्पर्श कर रहा हूँ"। इस अनुभव की उपपत्ति तभी हो सकती है जब देखने और स्पर्श करने वाला व्यक्ति एक और स्थायी हो, एवं देखी और स्पर्श की जाने वाली वस्तु भी एक और स्थायी हो। बौद्ध मत में ये दोनों ही बातें सम्भव नहीं हैं, क्योंकि देखने के समय का आलय विज्ञान क्षणिक होने के कारण स्पर्श करने के समय तक नहीं रह सकता और इस मत में देखना और स्पर्श करना आलय विज्ञान का ही कार्य है। इसी प्रकार देखी और स्पर्श की जाने वाली वस्तु भी एक नहीं हो सकती, इसके दो कारण हैं, एक तो यह कि बौद्धमत में सब वस्तुओं के क्षणिक होने से दिखने वाली वस्तु स्पर्श होने के समय तक नहीं टिक सकती, दूसरा यह कि इस मत में गुण से भिन्न द्रव्य का अस्तित्व न होने से दिखने वाली वस्तु होगी रूप और स्पर्श की जाने वाली वस्तु होगी स्पर्श, और रूप एवं स्पर्श एक दूसरे से भिन्न हैं । अतः जिस वस्तु को देखा जाता है उसका स्पर्श नहीं किया जा सकता, फलतः इस तथ्य को विवश होकर स्वीकार करना होगा कि देखने और सुनने वाला आत्मा एक स्थायी द्रव्य है तथा रूप और स्पर्श का आश्रयभूत पदार्थ भी रूप और स्पर्श से भिन्न एक स्थायी द्रव्य है, यह द्रव्य ही रूप के सम्बन्ध से चक्षु द्वारा दृष्ट तथा स्पर्श के सम्बन्ध से त्वक द्वारा स्पृष्ट होता है। ____ इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि रूप और स्पर्श में परस्पर भेद नहीं है, दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं, अतः अतिरिक्त द्रव्य का अस्तित्व न मानने पर भी चक्षु और त्वक् द्वारा एक ही वस्तु का अनुभव किया जाना सम्भव है । इसी प्रकार वस्तुमात्र के क्षणिक होने के कारण पूर्वकाल में देखे
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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