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उत्पन्न होता है उस समय उस वस्तु के साथ ज्ञान का सम्बन्ध सम्पन्न हो जाता है, परन्तु जो वस्तु ज्ञात हो जाती है वह नियमेन ज्ञायमान भी हो यह बात नहीं है, अर्थात् जिस समय वस्तु के साथ ज्ञान का संबन्ध सम्पन्न हो गया रहता है उस समय उस ज्ञान की उत्पत्ति भी होती है, यह नियम नहीं है। स्पष्ट आशय यह है कि वस्तु दो समयों में ज्ञात कही जाती है, ज्ञान की उत्पत्ति के समय और ज्ञान की निवृत्ति हो जाने के समय । पहले समय में ज्ञान के विद्यमान रहने के कारण वस्तु ज्ञात होने के साथ ज्ञायमान भी हो सकती है, पर दूसरे समय में ज्ञान के विद्यमान न होने से वस्तु ज्ञात तो होगी पर ज्ञायमान नहीं हो सकती, क्योंकि कोई भी वस्तु ज्ञायमान तभी होती है जब उसका ज्ञान विद्यमान होता है। वस्तु की ज्ञायमानता और ज्ञातता के उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि ज्ञायमान वस्तु में ज्ञातत्व और अज्ञातत्व के समावेश की सम्भावना तो नहीं है पर ज्ञात वस्तु में ज्ञायमानत्व और अज्ञायमानत्व के समावेश में कोई बाधा नहीं है। फलतः एक ही वस्तु में ज्ञायमानत्व और अज्ञायमानत्वरूप विरुद्ध धर्मो का समावेश होन से वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता की सिद्धि सम्पन्न होती है ।
प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तु का स्वरूप विरुद्ध एवं विभिन्न रूपात्मक है तब सब लोगों को उसके इस स्वरूप की प्रतीति क्यों नहीं होती ? उत्तर यह है कि जब किसी भी मनुष्य को किसी वस्तु की प्रतीति होती है तब उसे उस वस्तु के समस्त रूप की अविविक्त प्रतीति होती ही है, क्योंकि जब वस्तु विरुद्ध, अविरुद्ध, स्वाश्रित, पराश्रित तथा अनाश्रितरूप अनन्त धर्मपर्यायों की अभिन्न समष्टिरूप है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि वस्तु की आंशिक ही प्रतीति होती है और पूर्ण प्रतीति नहीं होती, हाँ यह अवश्य है कि सर्वसाधारण को वस्तु के समस्त रूपों की विविक्त एवं विस्पष्ट प्रतीति नहीं होती क्योंकि इस प्रकार की प्रतीति के लिये स्याद्वादी दृष्टि का होना आवश्यक होता है, और जिसे यह दृष्टि प्राप्त है, जिसमें वस्तु के उत्पत्ति, विकास और स्थैर्यरूप लक्षणों के भङ्गजाल का अध्ययन किया है उसे वस्तु की अनन्तरूपता की विविक्त प्रतीति होती ही है, अतः युक्ति और प्रमाण से जब वस्तु का यह अनन्त विशाल स्वरूप सिद्ध होता है तब सामान्य मानव को उसकी स्पष्ट प्रतीति न होने के कारण उसे अस्वीकार कर देना उचित नहीं है अपितु उसकी विविक्त प्रतीति प्राप्त करने के हेतु दृष्टि को स्याद्वाद के अञ्जन से विमल और ग्रहणपट्र बनाने के निमित्त अनेकान्तदर्शी आचार्यों का सत्सङ्ग करना अपेक्षित है।
तत्त्वं बुभ्यत शिशुर्भवतः किलेदं
षड्वार्षिकोऽपि भगवन्नतिमुक्तकर्षिः ।