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(१०) वृक्ष आदि पदार्थ अव्यापक - असार्वत्रिक हैं- यह बात भी ठीक नहीं है, यतः वे व्यापक तभी होंगे जब स्थान विशेष में असत् होंगे । और जब वे एक स्थान में असत्स्वभाव हो जायगे तब वे दूसरे स्थान में भी सत् न हो सकेंगे, क्योंकि स्थानभेद से स्वभावभेद नहीं होता अन्यथा शङ्ख एक स्थान में श्वेत और अन्य स्थान में पीत, एवं काक एक स्थान में श्याम और स्थानान्तर श्वेत होता ।
विज्ञानवादी की इस विचारधारा पर नैयायिकों का कथन यह है कि इस विचारधारा में अवयवी के विरोध में जिन तर्कों का आलम्बन किया गया है वे सब तर्काभास हैं, अतः उनसे अवयवी की सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती । वे तर्काभास इसलिये हैं कि उनमें से किसी में मिथोविरोध, किसी में मूलशैथिल्य, किसी में इष्टापत्ति, किसी में खण्डनीय पक्ष की अनुकूलता और किसी में विपर्ययानुमान की अनुपपत्ति है, जैसे
पहले और दूसरे तर्क में मिथोविरोध अर्थात् एक तर्क से सिद्ध किये जाने वाले अर्थ का दूसरे तर्क से व्याघात होता है, क्योंकि पहले तर्क से सिद्ध करना है स्थूलत्व का निषेध, तथा दूसरे तर्क से सिद्ध करना है अस्थूलत्व का निषेध, स्थूलत्वनिषेध, तथा अस्थूलत्वनिषेध परस्पर विरुद्ध हैं, अतः एक से दूसरे का व्याघात अनिवार्य है । दूसरे तर्क में अनुकूलता दोष भी है, कारण कि दूसरे तर्क का आलम्बन अस्थूलत्वनिषेध अर्थात् स्थूलत्व की सिद्धि के लिये किया जाता है और स्थूलत्व अवयवावयविभाव के अनुकूल है ।
तीसरे तर्क में अनुकूलता दोष है क्योंकि इस तर्क से विपरीतानुमानद्वारा अन्यसापेक्षता सिद्ध की जाती है और यह अन्यसापेक्षता अवयवी की सिद्धि के अनुकूल है ।
चौथे तर्क में व्यापकाप्रसिद्धि अर्थात् आपाद्याप्रसिद्धि होने के कारण मूलशैथिल्य है, क्योंकि सत् और असत् दोनों का भेद एकत्र रह नहीं सकता अतः आपादक में आपाच की व्याप्ति का निश्चय जो तर्क का मूल है, उसकी अनुपपत्ति हो जाती है ।
पाँचवें तथा छठें तर्क में भिथोविरोध दोष है, क्योंकि पाँचवाँ तर्क उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता का साधन करता है तथा छठां तर्क उत्पत्ति के पूर्व कार्य की असता का साधन करता है और इन दोनों में परस्पर विरोध है ।
सातवाँ तर्क अवयवी की सिद्धि के अनुकूल है क्योंकि इस तर्क से विपर्ययानुमान के द्वारा जिन पदार्थों में परस्पर भेद सिद्ध किया जाता है उनका परस्परभेद अतिरिक्त अवयवी की सत्ता का समर्थन करने वालों को मान्य है ।