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___यहाँ यह शंका करना कि जब न्यायनय एकान्तवादी होने के कारण वस्तुतः मिथ्या है तो सत्य के अन्वेषक स्याद्वादी को मध्यमिकमत के खण्डनार्थ भी उसका अवलम्बन करना अनुचित है, ठीक नहीं है, क्योंकि सभ्य समाज की दृष्टि में सत्य-प्राप्ति के उपाय रूप में असत्य को भी उपादेय माना जाता है।' सभी वस्तुओं को अपने अंक में बिठाना ही स्याद्वाद का ध्येय है, अतः स्याद्वाद स्वयं भी स्याद्वाद के कोड में स्थित है अर्थात् वह स्वयं भी एकान्ततः न तो प्रमाण ही है और न नय ही, किन्तु अपेक्षाभेद से प्रमाण भी है और नय भी ।
यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जब जैनशास्त्र का यह आदेश है कि जो भाषा वस्तु के किसी एक ही रूप का अवधारण कराती हो, उसका प्रयोग नहीं करना चाहिये, तब स्याद्वादी को नैयायिक के नय का प्रयोग करना कैसे उचित हो सकता है।
इसका उत्तर इस प्रकार है
स्याद्वादी बौद्धसम्मत वस्तुधर्म का नितान्त निराकरण करने के अभिप्राय से न्यायनय का प्रयोग नहीं करता किन्तु यह सिद्ध करने के लिये करता है कि वस्तु बौद्धमतानुसार केवल क्षणिकत्व आदि धर्मों का ही आश्रय नहीं हैं अपितु न्यायमतानुसार स्थिरत्व और ज्ञानभिन्नत्व आदि धर्मों का भी आश्रय है, अतः बौद्धनयसापेक्ष ही न्यायनय को स्वीकार करने के कारण अवधारणफलक भाषा के प्रयोग का दोष स्याद्वादी को नहीं हो सकता।
स्याद्वादी किसी भी नय के प्रयोग करने का अधिकारी इसलिये भी है कि जैनदर्शन के अनुसार समस्त वस्तुओं के स्याद्वाद की गोद में स्थित होने के कारण कोई भी नय एकान्त रूप से स्याद्वाद से भिन्न नहीं है, एवं स्याद्वाद भी नय से अत्यन्त भिन्न नहीं है, और ऐसी स्थिति में नय के प्रयोग को सर्वथा वर्ण्य मानने पर सप्तभंगी नय का भी प्रयोग वयं हो जायगा अथवा सप्तभंगी नय के प्रयोग का औचित्य मानने पर अन्य नय के प्रयोग का भी औचित्य मानना अनिवार्य हो जायगा।
स्याद्वाद के प्रामाण्य में स्याद्वाद का प्रवेश होने से उसकी प्रमाणरूपता के व्याघात की शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि स्याद्वाद के स्वयं भी स्याद्वाद के प्रभाव में पड़ने से ही उसके महत्त्व की रक्षा तथा उसके लक्ष्य-वस्तुमात्र की अनेकान्तरूपता-के साधन की पूर्ति हो सकती है।
नोच्चैविभर्ति यदि नाम कृतान्तकोपा
दुत्प्रेक्ष्य क्ल्पयति-भिन्नपदार्थजालम् ।