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________________ ( ६३ ) स्याद्वादसिद्धान्त में अन्य सभी मतों की बातें सम्मिलित रहती हैं, यह सिद्धान्त किसी अन्य मत का खण्डन नहीं करता किन्तु विभिन्न मतों में समन्वय और सामजस्य स्थापित करता है। अतएव यह सब मतों का उपजीव्यसंरक्षक हैं : अन्य किसी सिद्धान्त को यह गौरव नहीं प्राप्त हो सकता क्योंकि अन्य सब सिद्धान्त एक दूसरे के प्रति घृणा के भाव से भरे होते हैं, वे अपनी बात को तो बड़ा आदर देते तथा बहुत युक्तिसंगत बताते हैं पर दूसरे की बात को बड़े अनादर से देखते और उसका बड़े आवेश तथा आडम्बर के साथ खण्डन करते हैं। इस प्रकार जो नय एक दूसरे के विरोधी हैं उनमें से किसी एक पर आस्था रखने वाले पुरुष को अन्य नय की सहायता से किसी प्रकार का बल नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि दूसरे नये नय को अपनाने से अपने निजी नय के आधार पर निश्चित किये गये पूर्व सिद्धान्त से च्युत हो जाना पड़ता है। अतः बुद्धिमान् मनुष्य को किसी मत का खण्डन करने के लिये दूसरे नय का छलरूप से भी प्रयोग करना ठीक नहीं है किन्तु अपने ही नय पर निर्भर रहना उचित है। इसलिये बौद्धमत के खण्डनार्थ नैयायिक को वेदान्त की नीति का अवलम्बन करना सर्वथा अनुचित है। कः कं समाश्रयतु कुत्र नयोऽन्यतर्कात् ___ प्रामाण्यसंशयदशामनुभूय भूयः। ताटस्थ्यमेव हि नयस्य निजं स्वरूपं स्यार्थेम्वयोगविरहप्रतिपत्तिमात्रात् ॥ ४०॥ प्रत्येक नय अन्य नय के तर्कानुसार अप्रामाणिक है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौन सा नय प्रमाण है और कौन सा अप्रमाण ? इसलिये किसी एक नय को सदोष सिद्ध करने के लिये कोई नय किसी नयान्तर का सहयोग नहीं प्राप्त कर सकता। ___ इस पर यह प्रश्न उठ सकता है कि अन्य नय के प्रतिपाद्य विषय को असत् बताते हुये अपने विषय को सत् सिद्ध करना ही नयों का कर्तव्य होता है, इसलिये जो नय दूसरे नय के विषय की असत्यता स्थापित करने में समर्थ न होगा वह नय कहलाने का ही अधिकारी कैसे हो सकेगा ? __ इसका उत्तर बड़ी सरलता से इस प्रकार दिया जा सकता है कि अन्य नय के विषय की असत्यता का प्रतिपादन करना नय के कर्तव्यों में सम्मिलित नहीं है, उसका कर्तव्य तो अपने विषय की असत्यता के निषेध का प्रतिपादन करना तथा अन्य नय के विक्ष्यों की सत्यता वा असत्यता के प्रदर्शन में तटस्थ रहना . ही है। तात्पर्य यह है कि नय की वास्तविकता अपने विषय के समर्थन में है
SR No.022404
Book TitleJain Nyaya Khand Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChowkhamba Sanskrit Series
Publication Year1966
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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