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वैदिक समय में पशुहिंसा बहुत होती थी । यज्ञों में पशु बहुत मारे जाते थे और उनका मांस भी खाया जाता था । उस समय कई एक पशुओं का मांस खाद्य समझा जाता था, उनके नामनिर्देश करने की यहाँ आवश्यकता नहीं है । इस विषय के उल्लेख जो वेदों में पाए जाते हैं उन्हें जाने दीजिए किन्तु महाभारत में चर्मण्वती नदी और रन्तिदेव राजा का जो वृत्तान्त है उसेही पढ़ने से पुराने जमाने की खाद्याखाद्य चीजों का पता लग जाता है । सोम रस का पान तो उस समय इतना होता था कि जिसका ठिकाना नहीं पर लोगों को सोम पान की अपेक्षा 'हिंसा अधिक प्यारी लगती थी । इसी वैदिकी हिंसा को दूर करने के लिए गौतम बुद्ध को "अहिंसा परमो धर्मः " का उपदेश देना पड़ा " ।
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“सामवेद के मन्त्र प्रायः ऋग्वेद से ही लिये गये हैं, सिर्फ उनके स्वरों में भेद है । वे गाने के निमित्त अलग कर दिये गये हैं । सोम यज्ञ में उद्गताओं के द्वारा गाने के लिये ही सामवेद को पृथक् करना पड़ा है । सामवेद भी यज्ञ से संबन्ध रखता है और यजुर्वेद भी । सामवेद का काम केवल सोम यज्ञ में पड़ता है, यजुर्वेद में सभी यज्ञों के विधान आदि हैं । साम की तरह यजुर्वेद भी ऋग्वेद से
१ जिन वेद शास्त्रों में हिंसा का प्रचुर उपदेश है, इतनाही नहीं किन्तु सुरापान याने दारू का भी पीना कुछ कम नहीं लिखा है । ऐसे गर्ल और नीच पथपर मनुष्यों को ले जानेवाले शास्त्रों को हम सर्वथा हेय समझते हैं । हमही क्या कोई मी बुद्धिमान् इस बात को स्वीकार न करेगा । आश्चर्य है कि ऐसे वेदों को माननेवालों के दिल में कुछ विचार भी नहीं आता !
२ यह सिद्धांत बौद्धों का नहीं किन्तु जैनों का मुख्य सिद्धांत है। जैन तीर्थकर- गणधर अनंत काल से इस सूत्र का उपदेश करते चले आये, और भविष्य में ( होने वाले) तीर्थकर भी करेंगे । ऐसा जैनों का मानना है। गौतम बुद्ध ने इस सिद्धान्त का कुछ अंश लिया परंतु पूरा नहीं इसीसे बौद्धमतानुयायी गौतम बुद्ध के समय में भी मांस खाते थे और आज भी खाते हैं । जैन और बौद्ध धर्म को जो लोग एकही बतलाते हैं अथवा एक को एक की साखा कहते हैं उनकी भूल है किन्तु दोनों धर्म अलग अलग हैं। तीर्थकर महाबीर जी का शिष्य गणधर गौतम और बौद्ध धर्मोत्पादक गौतम बुद्ध के नाम एक होने से दोनों एक नहीं हो सके ।
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