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" जिस' रूप में आज कल वेद ग्रन्थ देखे जाते हैं वह उनका आदिम रूप नहीं है । उनका वर्तमान रूप वेद व्यासजी की कृपा का फल है । व्यासजी के पहले वैदिक स्तोत्रसमूह एक जगह एकत्र न था । वह कितनेही भिन्न भिन्न अंशों में प्राप्य था। क्योंकि सारे स्तोत्रसमूह की रचना एकही समय में नहीं हुई । कुछ अंश कभी बना है, कुछ कभी । किसी की रचना किसी ऋषि ने की है, किसी की किसी ने । उन सब बिखरे हुए मन्त्रों को कृष्ण द्वैपायन ने एक प्रणाली में बद्ध करदिया । तभी से वेदों के नाम के आगे “संहिता " शब्द प्रयुक्त होने लगा । उसका अर्थ है - " समूह ' 77 66 जमाव, " " एकत्रीकरण " । वर्तमान रूप में वेदप्रचार करनेही के कारण बादरायण का नाम वेदव्यास पड़ा । उन्होंने समग्र वेद अपने चार शिष्यों को पढ़ाये । बहूवृच नामक ऋग्वेद संहिता पैल को, निगद नामक यजुर्वेद संहिता वैशम्पायन को, छन्दोग नामक सामवेद संहिता जैमिनि को, और अङ्गिरसी नामक अथर्व-संहिता सुमन्तु को । इन चार शिष्यों ने अपने अपने शिष्यों को नई प्रणाली के अनुसार वेदाध्ययन कराया । इस प्रकार वेद- पाठियों की संख्या बढ़ते बढ़ते वेदों की अनेक शाखायें होगई, मन्त्रों में कहीं पाठ भेद होगया। किसी ऋषि के पढ़ाये शिष्य एक तरह का पाठ पढ़ने लगे, किसी के और तरह का । यह पाठ-भेद यहांतक बढ़गया कि सामवेद की सौ तक शाखायें होगई ! परन्तु अब ये सब शाखा पाठ नहीं मिलते । कुछही मिलते हैं ।
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१ वेद, व्यासजी के पहले वेद ग्रन्थ के रूप में ही नहीं थे । ग्रन्थ का रूप व्याजीनेही वेदों को दिया और वेदों का महत्वभी तब से विशेष बढ़ा इससे कह सकते हैं कि वेदों पर जितना अब वैदिकों का विश्वास है उतना व्यासजी के पहले नहीं था । ईश्वरप्रणीत शास्त्रों का रूप सर्व काल एक समान चाहिए । "अन्थकर्ता "
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२ इससे यह भी प्रतीत होता है कि व्यासजी के पहले वेद जाननेवाले कम
थे ? जभी तो शाखाओं का अभाव हो गया ?
३ ईश्वरप्रणीत शास्त्रों मे विख्यातजी की राय है कि वेद ठीक मालूम होती हैं ।
भी कहीं पाठ भेद होसकता है ? इसलिये जो वेद ईश्वरप्रणीत नहीं हैं किन्तु मनुष्यनिर्मित हैं यह