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एक
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पिताजी का नाम शिवानंदजी था । गणिजी के पिता ग्वालियर में श्रीमान मेघराजजी सुराणे के यहां नोकरी करते थे । हमारे चरित्र नायक जब नव वर्ष उमर के हुवे उस समय श्वेतांबर जैनाचार्य श्रीमद ताराचंन्द्र सूरिजी महाराज यतिगण के साथ अनेक देशों में विचरते हुवे सं० १८९३ में ग्वालियर पधारे उस समय वहांके श्रावकोंने नगर प्रवेशका बड़ा भारी उत्सव किया था. उनके व्याख्यान हमेशा होते थे. दिन मेघराजजी सुराणेने आचार्यजी से बीनती की, कि मेरे वरको आपकी पधारामणी करने की मेरी इच्छा है सो आप अवश्य पधार कर मेरा घर पावन कीजिये । श्री जी ने यह बात स्वीकार कर दूसरे ही दिन सुराणेजी के घरको पधारे. सुराणेजी ने आचार्य श्री जी की नव अंग की केसरादिसे पूजन की और कई प्रकार से भक्ति की, उस समय हमारे चरित्र नायक श्री जी के समीप जाकर बैठगये. आप के माता पिता प्रभृतिने इनको वहां से उठाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया किन्तु आचार्य श्री से दूर होना आपने बिलकुल नहीं स्वीकार किया. यह आश्चर्य जनक दृश्य देखकर आपके माता पिताने और मेघराजजी सुराणे ने आचार्यजी से यह बीनती की कि, इस बालककी भक्ति प्रीति आप पर अधिक मालूम हो रही है इससे हम लोगों का अन्त:करण यही कह रहा है कि इस बालकको आपकी सेवा में अर्पण कर देना इस पर से श्री जी ने उत्तम जीव समझ कर हमारे चरित्र नायकको अपने साथ उपाश्रयको ले आये.
वि० सं० १९०३ में आचार्यजी के समीपसे आपने दीक्षा ग्रहण की. दीक्षा का नाम आजार्यजी ने आपका ' केवलचन्द्र ' मुनि रक्खा .
* नोट -- इन दिनों में खरतर गच्छीय श्री पूज्याचार्य श्री जिन सौभाग्य सुरिजी ग्वालियरको पधारे हुवे थे दोनोही आचार्य सहर्ष परस्पर मिल और आनंदपूर्वक दार्शनिक विषय पर परामर्श किया गया. बहुधा खरतर और तपगच्छके श्रीपूज्य " हमबड़े " इस अभिमानके वश अन्य गच्छीय आचाय से रूबरू में नहि मिलाप किया करते थे किन्तु यह बात श्री सौभाग्यरूरीजी में नही थी. वह इस बातको खूब जानते थे कि एक पद धारी आचायों के साथ नफरत करना सर्वथा अनुचित हैं और एक मेकका परस्पर गौरव करना यह शिष्टाचार का परिपालन है. प्रस्तुतके आचार्य और यति अभिमान और कुआचरणके वश जो पुरानी प्रतिष्टा खो बैठे हैं उनको उचित हैं कि, आचार्य द्वयका अनुकरण करे, यदि अभी भी इस ओर लक्ष नही दिया जायगा तो रही सही प्रतिष्ठा भी गमा बैटेंगे. आचार्य और यतियोंको उचित हैं कि ३६ और २७ गुणोंकी तर्फ ध्यान दे ।