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लिए हम इसके संबन्ध में इस जगह अधिक लिखना नहीं चाहते। शंकराचार्य जी के संबंध में इस ग्रंथ में परामर्श करने का प्रयोजन यह हुआ कि आपने भी ब्रह्म को सर्वव्यापी और जगत् का कारण माना है इस लिए इनके संबन्ध में लिखना अप्रासंगिक नहीं समझना चाहिए। और अनेक बातें प्रसंगतः जो जो लिखी गई हैं वह देखकर विषयान्तर नहीं समझना चाहिये । यदि समय मिला तो शंकराचार्य के ब्रह्माद्वैतवाद के संबंध में अपने विचार फिर किसी समय में अन्य स्थल पर प्रकट करने की चेष्टा करूंगा। . वेद-वेदान्तादि दर्शन के अनेक विद्वान्गण जैनदर्शन को बौद्ध चार्वाक, नास्तिक कहकर अथवा उक्त मतों के तुल्य बतलाकर केवल आपही सच्चे आस्तिक बनने का दावा करते हैं, परंतु इस बात को कहनेवाले अपनी अज्ञता पूरी पूरी झलकाते हैं । जैनधर्म अनादि काल से ही अविच्छिन्न प्रवाह रूप से चला आया है और आस्तिक शिरोमणि धर्म है । और यह बात वेदमतानुयायी काशी (बनारस) निवासी साक्षरयं सर्वतंत्रस्वतंत्र सत्सम्प्रदायाचार्य स्वामी 'राममिश्र शास्त्री जी ने अपनी वक्तृता में सिद्ध करदी है पाठक ! इस व्याख्यान का सारांश गौर के साथ पढ़िये कि वैदिक विद्वान जैन धर्म के संबन्ध में क्या फरमा रहे हैं जरा ध्यान दीजिए:"सज्जन महाशय ! . आज बड़ा सुदिन और मांगलिक समय है कि हम भारतवर्षीय, जिनके यहाँ सृष्टि के आदि कालही से सभ्यता, आत्मज्ञान, परार्थे आत्मसमर्पण, आत्मा की अनाद्यन्तता ज्ञान चला आया है बल्कि समय के फेर से कुछ पुरानी प्रतिष्ठा पुरानी सी पड़ गयी है, वे इस
१-खामी राममिश्रशास्त्री जी ने काशी में यशोविजय जी जैनसंस्कृत पाठशाला के भवन में जैन धर्म विषय पर जो व्याख्यान दिया था, वह व्याख्यान (भाषण) 'सुजनसम्मेलनम्' नाम से पुस्तक रूप में मुंबई निवासी सेठ-वीरचंद दीपचंद सी. आई. ई. जे. पी. और सेठ गोकुल भाई मूलचंद द्वारा बनारस चंद्रप्रभा प्रेस में छप कर प्रकाशित हुआ है । और यह-शास्त्रविशारद-विजयधर्म सूरि जी को कृपा का फल है।