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सुख की प्राप्ति के लिए करता है । इससे इस स्थानपर मुक्ति के वारे में भी थोड़ा लिखना अप्रासंगिक और अरोचक न होगा। सृष्टि का कर्ता माननेवाले कई सज्जन तो जैसा ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं वैसा मुक्ति का भी स्थान किसी भी एक जगह निश्चित नहीं मानते । उनका कहना है कि मुक्तात्मा संकल्पमय शरीर होकर ब्रह्म में विचरा करते हैं। क्या मालूम इस मन्तव्य को स्वीकार करनेवालों के ब्रह्म का कौनसा स्थान है ! हमारी समझ से तो मुक्ति का स्थान आनियत मानने से मुक्त आत्मा का पवित्र ओर अपवित्र स्थानों में भी विचरना इन लोगों को मानना चाहिए ! क्योंकि स्थानही जब नियत नहीं है तो अपवित्र स्थान में मुक्तात्मा जावे इस में आश्चर्यही क्या है ? ऐसी मुक्ति उनका ईश्वर उन्हीं को दे। मुक्तजीव स्थूल शरीर त्यागकर संकल्पमय शरीर से आकाश द्वारा परमेश्वर में विचरते हैं और ब्रह्म में आनन्द, नियत समय तक भोगते हैं कि पुनः महाकल्प के पश्चात् संसार में आते हैं अर्थात् 'परांत काल तक मुक्ति में रहते हैं फिर मुक्त आत्मा पीछे संसार में लौट आते हैं । वाह ! ईश्वरवादीजी ! ! आपकी मुक्ति भी खूब है ! मुक्त आत्मा को पीछे संसार में लौट आने का कारण क्या है ? क्या मुक्तात्मा जीव मुक्ति से नाराज होकर स्वतः चले आते हैं या आपका सर्वशक्तिमान ईश्वर उनको मुक्ति में से धक्का देकर गिरा देता है ? यदि स्वतः संसार में आना कहोगे तो यह बतलाना होगा कि आध्यात्मिक सुख को छोड़ सांसारिक दुःखों में क्यों आते हैं ? यदि कहोगे कि परमेश्वर उनको आज्ञा देता है तो फरमाइये उनको सुख से दुःख में लाने का क्या कारण हुआ ? देखिये यह कैसी विचित्र मुक्ति है ! जैसे किसी स्त्री का श्वशुरगृह और मातृगृह । मन की इच्छा हुई जब स्त्री सासर चली जाती है और मन की इच्छा होती है जब पीहर चली आया करती है ऐसी आप लोगों की मुक्ति है। .
१ तैंतालिस लाख, बीस हजार वर्षों की एक चतुर्युगी, दो हज्जार चतुर्युगी का एक अहोरात्र, ऐसे तीस अहोरात्र का एक महीना, ऐसे बारह महीने का एक वर्ष ऐसे सौ वर्षों का परान्त काल होता है । ऐसा सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में लिखा है । कहीं ऐसा भी माना गया है कि इकतीस निखर्व, दश खर्ब, चालीस अर्ववर्षों का एक परान्त काल होता है।