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और शूद्र को रचा । यदि तर्कताप से बचने के लिए ऐसा कहें कि ब्रह्मा कहने से ईश्वर ही को यहाँ लेना चाहिये; हम ईश्वर को ब्रह्मा भी कहते हैं तो क्या निराकार ईश्वर के भी हाथ पाँव मुख आदिक होते हैं ? यदि होते हैं तो उसको निराकार कहना मिथ्या है। निराकार का अर्थ आकाररहित होता है किन्तु हाथ पाँववाला कभी निराकार नहीं कहा जासकता । ब्रह्माजी ने ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र को-मुख-भुजाजंघा और पावों से उत्पन्न किया इस कारण ये उत्तम-मध्यम-जघन्य जाति कही जाती हैं ऐसा वैदिक मानते हैं और इसीसे वैदिक लोग ब्राह्मणों को सर्वोच्च मानते हैं । क्षत्रिय उससे कम और वैश्य उससे कम और शूद्र को सबसे नीचे की पंक्ति में गिना है यहां विचार करने का स्थान है कि कर्ता ने ब्राह्मणादि वर्गों के शरीर के चिन्ह (अवयव) ही अलग अलग क्यों नहीं करदिये ? किं जिससे गुण-कर्म-स्वभाव की परीक्षा करने का भी कोई कारण नहीं रहता। क्या सृष्टिकर्ता को वर्णाश्रमों में शारीरक चिन्ह करदेने की कठनाई पड़ती थी? और दूसरी बात यह है कि गुण-कर्म-स्वभाव-से वर्णाश्रमों की व्यवस्था लगाने से बहुत कुछ विवाद उपस्थित होने का स्थान है । जैसा कि एक मनुष्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ और उसके गुण-कर्मखभाव शूद्र के हैं और दूसरा शूद्रकुल में उत्पन्न हुआ और गुण कर्म स्वभाव ब्राह्मण के हैं, फिर बतलाइये किसको ब्राह्मण कहना और किसको शूद्र । क्योंकि ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए मनुष्य को शूद्र कहेंगे तो उसका विवाहादि सब व्यवहार शूद्रजाति में ही होना चाहिए ? और शूद्रजाति में उत्पन्न हुए मनुष्य को गुण-कर्मस्वभाव से ब्राह्मण कहेंगे तो उसका विवाह आदि सब व्यवहार ब्राह्मणजाति में ही होना चाहिए ? और यदि ऐसा होना सब मान लें तो वर्णव्यवस्था कदापि ठीक नहीं रह सक्ती । इस बात को कितनेक वैदिक मानते हैं और कितनेक निषेध भी करते हैं। जो लोग ब्रह्माजी के मुख-भुजा-जंघा और पांवों से चारो वर्णों की उत्पत्ति मानते हैं उन्हीको विचार करना चाहिए कि ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न होनेवाले