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( ४० ) किस न्याया से माने ? इससे सिद्ध हुआ कि एक मात्मा सर्वव्यापक महीं है।
जो जो सृष्टि का कर्ता ईश्वर को कहते हैं उनको स्मरण रहे कि यदि सृष्धि ईश्वर की रची हुई है तो जितने जगन्नियन्ता ईश्वर की भक्ति करते हैं उन सब को और जो नो ईश्वर को जगत्कर्ता स्वीकार करते हैं उनको भी सुखी रखना जगनियन्ता को उचित है ! परन्तु जगन्नियन्ता को माननेवाले बहुत से लोग महान् दुःखी भी दिखलाई पड़ते है । जगन्नियन्ता ईश्वर को उचित था कि ओ जो लोग जगत्कर्ता को नहीं मानते हैं उनके संमुख आकर स्पष्ट कहते कि सृष्टि का फर्ता हर्ता मैं हूँ ! तुम सृष्टिकर्ता को नहीं मानते इस लिए मैं तुमारे समीप आया हूँ ! ऐसा क्यों नहीं किया ? क्या इस काम को करने की उसमें शक्ति नहीं थी? क्या सर्व शक्तिमान में हम लोगों को समझाने की सामर्थ्य नहीं है? क्या पृथा ही सर्वशक्तिमान कहलाने का दावा रखता है ? क्या सृष्टि उत्पन्न करते समय यह नहीं सोचा था कि ये मेरे को जगत्कर्ता नहीं माननेवाले मेरा खण्डन करेंगे इसलिए इनको न बनाऊँ ? जब संसार का कर्ता कोई हैही नहीं सो उपर्युक्त बातें कहाँ से हों। ईश्वर को जगत्कर्ता मानना ही भ्रम है। इस समय भी सृष्टि को अकर्तजन्य अनादि अनन्त मानने वालों की संख्या कुछ कम नहीं है। जैन, बौद्ध, और प्राचीन सांख्यकार इत्यादि सृष्टि के कर्ता को नहीं मानते, तो इन धर्मावलम्बियों को आपके ईश्वर ने क्यों रचा ? इसका उत्तर दीजिये । जगत् का कर्ता माननेवाले जब अपना पक्ष निर्बल देखते हैं तब यह भी कहने को तैयार हो जाते हैं कि हम ईश्वर से निर्माण किये गये हैं परन्तु जैसा हमारा शुभाशुभ कर्म होगा वैसाही हमको फल ईश्वर द्वारा प्राप्त होगा । देखिए पाठक ! प्रथम तो एक ईश्वर कोही पकड़ कर बैठे थे परन्तु फिर दूसरे की तर्कताप से बचने के लिये कर्म की ओर झुके, कर्मों का फल ईश्वरद्वारा प्राप्त होना मानने में न मालूम ईश्वरवादियों को क्या लाभ होता है ? जब ईश्वर अपनी ओर से कुछ नहीं दे सकता तो फिर कर्ता हर्ता वह किस न्याय से सिद्ध हो सक्ता है। यदि केवल ऐसाही मान लिया जाय कि सुख, दुःख ववकर्मानुसार प्राप्त