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के लिये नहीं लिखा गया है, और न किसी को अच्छा बुरा कहने की हमारी इच्छा है किन्तु सृष्टि किसी की बनाई हुई है या अनादि है ? इसी बात के बारे में यहां लिखा जा रहा है । इस प्रथम भाग में विशेष करके हमारे भारत के आर्य (हिन्दू) धर्मों में से जितने जगत् कर्ता ईश्वर को मानते हैं उन्हीं के मन्तव्यों पर विचार किया गया है और दूसरे या तीसरे विभाग में हिन्दुस्तान के बाहर के धर्मों के बारे में विचार किया जायगा ।
जिस देव की मूर्ति ही शान्त वस्तुगत्या दिखलाई नहीं देती वह किस युक्ति से सर्वशक्तिमान कहा जा सकता है ! किसनेक लोग मूर्ति को नहीं भी मानते और ईश्वर को निराकार कहकर भी उसको संसार की रचना करने का दोष देते हैं यह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि निराकार से साकार पदार्थों का उत्पन्न होना किसी रीति से भी सिद्ध नहीं हो सकता !
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कोई यह भी कहते हैं कि यह शरीर और इस के भीतर जो बोल रहा है यह सब पांच तत्त्वों का खेल है। अर्थात् पृथिवी से हड्डी, जल से रुधिर, अग्नि से जठराग्नि, वायु से श्वास और आकाश से शून्यता (पोलापन) हुआ है। एवं उक्त पांच तत्वों से ही सब संसार है अर्थात् पञ्चतत्वमय ही संसार है । हम पूछते हैं कि चैतन्य उत्पन्न करने की शक्ति किस तत्व में है ? क्यो कि तब तो पाचों ही जड हैं फिर जड से चैतन्य की उत्पत्ति किस रीति से हो सक्ती है । और यह कहना कि पञ्चभूतों के परस्पर सम्मेलन से जीव की उत्पत्ति है तो यह नितान्त असत्य है क्योंकि जैसे शुष्क वृक्ष में पत्र, पुष्प, फल लगने का संभव नहीं है तद्वत् पञ्चभूतों में चैतन्य उत्पन्न करने की शक्ति नहीं हैं । अतएब यह मन्तव्य वृथा है | कितनों का यह भी कथन है कि पंचभूतों से विश्व उत्पन्न हुआ करता है और जब महाप्रलय होने का काल (समय) आता है तब उस समय सृष्टि पञ्चभूतों में लीन हो जाया करती है और पंचभूत ईश्वर में लीन हो जाते हैं । इस मन्तव्य को स्वीकार करने वाले यह नहीं विचार करते कि पञ्चभूत का ईश्वर में लीन होना