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सूर्यो भ्राम्यति मिस्वमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे" ९६३॥ भावार्थ - जिल कर्म ने झा को ब्रह्माण्ड रचने में कुम्भकार की तरह लगाया, और विष्णु को दशावतार ग्रहण रूप बड़े संकट में डाला और शिव को कपाल हाथ में लेके भिक्षा माँगने में रक्खा, और सूर्य को नित्य आकाश में भ्रमाया, ऐसे कर्म को मेरा नमस्कार है ॥
उपर्युक्त दोलों में भर्तृहरि क्या कह रहे हैं ख्याल कीजिए ! कर्मों का फल देनेवाला जिसे आप मानते हैं उसको भी कर्म के आगे भर्तृहरि ने निरर्थक बतलाया। आश्चर्य है कि ऐसे परतन्त्र को सर्वशक्तिमान् ईश्वरीयावतार कहने में लोग कुछ विचार नहीं करते ! फिर भी थोड़ा हाल सुन लीजिए ! :
" तपखिशापान्न कथं विनष्टा, पूर्णारिका यादवमण्डिताऽपि । हरिभ्रमन् काननमध्यदेशे, बाणप्रहारान्न कथं विनष्टः " ॥१॥
भावार्थ- बड़े ही आचर्य की बात यह है कि कृष्णावतार विद्य मान रहते भी द्वारका पुरी तपस्वी के शाप से नष्ट हो गई अर्थात् अनि से जल कर भस्म हो गई। जो औरों की आपत्ति दूर करने को तो अवतार धारण करे परन्तु अपनी आपत्ति दूर न कर सके वह कैसा ईश्वर है । अन्त में द्वारका से निकल कर कृष्ण जी वन में गये, और वहाँ पर भी एक वधिक के बाण के लगने से दुःखी होकर जल के प्यासे ही उन्हें देहत्याग करना पड़ा ऐसे अल्पशक्तिमान् मनुष्यों को सर्वशक्तिमान् ईश्वरावतार कहना बड़ी खेद की बात है !
और भी थोड़ा अवतारों का हाल सुन लीजिए ! :"चकर्त शीर्ष स्वकरेण मातुः, निःक्षत्रियां यः पृथिवीं चकार ।