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( २५ ) के ईश्वर में अज्ञता का दूषण आयाया नहीं ? यदि ऐसा कहेंगे कि ईश्वरने रावणादि राक्षसों को जान बूझ कर उत्पन्न किया था तो इस पर इस प्रश्नका उद्भव होता है कि राक्षसयोनि के उत्पन्न करते समय क्या ईश्वरने यह नहीं जाना था कि जो राक्षसलोग उत्पन्न होंगे वे मेरे प्यारे देवताओं को दुःखी करेंगे, और फिर देवतालोग मेरा स्मरण करेंगे और मुझे उनकी भक्ति के बश होकर राक्षसों को संग्राम [ युद्ध ] करके मारना पड़ेगा तथा देवताओं की रक्षा करनी होगी ? अब विचारिये कि ईश्वर को राक्षसयोनि उत्पन्न करने से लाभ के स्थान पर हानि भोगनी पड़ी या नहीं ? इससे तो राक्षसयोनि को नहीं उत्पन्न करते तो श्रेय था, क्योंकि . ईश्वर को अवतार धारण करने का और युद्ध में अतुल बल देखाने का परिश्रम नहीं करना पड़ता । दूसरी बात यह है कि प्रथम उत्पन्न किया और फिर उनसे युद्ध करके उन्हें मार डाला इससे ईश्वर को क्या लाभ हुआ ? __महदाश्चर्य है कि विचारा जगत्कर्ता ईश्वर उत्पन्न करने का और मारडालने का निरर्थक परिश्रम रात दिन करताही रहता है। उपर्युक्त बातों को विचार करने से विदित होता है कि जगन्नियन्ता ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है किन्तु असर्वज्ञ है।
"ये ये हताश्चक्रधरेण दैत्या
स्त्रैलोक्यनाथेन जनार्दनेन ॥ ते ते गता विष्णुपुरीं नरेन्द्राः! क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः" ॥
श्लो. २३ पाण्डवगीता. भावार्थ- चक्रधारी त्रैलोक्यनाथ जनार्दन ने जिन जिन दैत्यों को मारा वे सब विष्णुपुरी [मोक्षपुरी] को गए अतएव ईश्वर का क्रोध भी बर के तुल्य है। . देखिए ! ईश्वर ने जितनों को मारा उतने सब मुक्त होगए ! तो अपने प्यारे देवताओं और भक्तजनों से भी शीघ्र राक्षसों को विष्णुपुरी देता है। जगत्कर्ता कैसा न्यायशील है इस बात का यह एक नमूना है कि