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( २१ ) पृथक् पृथक् दिखलाई पड़ते हैं तद्वत् ईश्वर भी घट घट व्यापी है। तात्पर्य-ईश्वर बिम्ब है और जीव प्रतिबिम्ब है । परंतु यह कहना भी अज्ञता से भरा है क्योंकि बिम्ब के सदृश प्रतिबिम्ब होता है, जैसे द्वितीया का चंद्रमा धनुषाकार छोटा होता है तो जल में भी उसका वैसाही धनुपाकार छोटा ही प्रतिबिम्ब दीखता है और पूर्णिमा का चंद्र स्थाली के आकार गोल होता है तो जल में भी प्रतिबिम्ब वैसाही गोल दृष्टि गत होता है, अथवा कांच के भवन (आदर्श भवन) में जो कोई मनुष्य प्रवेश करे उसका जैसा बिम्ब होगा वैसाही प्रतिविम्ब चारो ओर नजर
आवेगा तद्वत् ईश्वर का प्रतिबिम्ब संसार को स्वीकार करने से स्पष्ट विरोध आता है, क्योंकि कोई सुखी कोई दुःखी, और कोई पापी कोई धर्मी इत्यादि नाना प्रकार की विचित्रता संसार में दिखलाई पड़ती है, अतएव संसार को ईश्वर का प्रतिबिम्ब किस हेतु से माना जाय क्योंकि यह स्वाभाविक नियम है कि बिम्ब की सादृश्य प्रतिबिम्ब में होना ही चाहिए जैसे ईश्वर को अविनाशी मानते हो तद्वत् संसार को भी अविनाशी स्वीकार करना योग्य होगा। जैसा ईश्वर कर्मरहित है तैसे जीवों को भी कर्मरहित होना चाहिए ? तो ऐसा तो दिखाई नहीं देता इससे सिद्ध हुआ कि ईश्वर का प्रतिबिम्ब जगत् नहीं है । ईश्वर सुखमय है
और संसार दुःखमय है, देखिये ? यह प्रत्यक्ष विरोध आता है इस से आपका कहना असत्य हुआ।
कई महाशयों का यह अभिप्राय है कि चराचर में आत्मा (ईश्वर) एकही है और पुद्गल भिन्न भिन्न हैं।
"सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षि शिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१॥ भावार्थ-जिसके सब जगह पर हाथ, पग, आंख, शिर, और मुख है और सब स्थान पर जिसके कान हैं सब और संपूर्ण पदार्थों में व्यापक हो के रहता है सब और संपूर्ण वृत्तियों (व्यवहारों) का स्थान होके ठहरा हुआ है। तात्पर्य-गरुड से आदि लेकर कीटिका पर्यन्त सब और संपूर्ण पदार्थों में