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राष्टिगत होते हैं देखिए बौद्ध पीठिका में लिखा है कि "निग्गन्धनाथ पुष और अम्गी वैशायन गोत्र का सुधर्मा अपने पके शत्रु हैं" इपर वेदव्यास जी के रचित ध्यास सूत्र में "नैकसिमसंभवात्" (पदा० सू० २।२।३३) इस सूत्र पर शङ्कराचार्य का रचित भाष्य है, उसमें उन्होंने जैनों की स्याद्वाद-सप्तमजी का खण्डन करने का साहस किया है । इत्यादि प्रमाणों से कह सक्ते हैं कि बौद से और वैदिक धर्म से जैनधर्म प्राचीन है यदि उस समय जैन धर्म नहीं होता तो बौद्धों के शास्त्रों में और वैदिक शास्त्रों में खण्डन मण्डन कहां से हो सक्ता? अतः इस विषय में पूर्वोक्त प्रमाण पर्याप्त है और जैनों का जो यह कहना है कि सृष्टि किसी की भी रचित नहीं है यही बात बहुत ठीक मालूम होती है. ! ___ सृष्टि को ईश्वरचित मानने से अनेक दोष आते हैं और अनादि मानने से एक भी दोष नहीं आता इस बात को इस प्रन्थ में अच्छे प्रकार से दिखाया जायगा, पाठक ध्यान पूर्वक पढ़ें।
जगत्कर्ता माननेवालों का कथन है कि "सृष्टि ईश्वर ने निर्माण की है वह विदेह ईश्वर सर्वशक्तिमान है और वेद उसी परमात्मा के रचे हुए हैं" इसके प्रत्युत्तर में विदित हो कि विदेह ईश्वर देह के विना स्वृष्टि कैसे रच सका? अर्थात् कारण विना कार्य नहीं होता, फिर बतलाना होगा कि उस विदेह ईश्वर को सृष्टि रचने से क्या प्रयोजन था? विदेह ईश्वर के लिये जगत् के रचना करने में प्रवृत्ति अनुचित व असंभव है, यदि कहा जाय कि ऐश्वरीय माया से जगत उत्पन्न हुआ है तो वह माया ईश्वर से भिन्न है या अभिन्न ? और वह जगन्नियन्ता प्रभु भी खतन्त्र है यापरतन्त्र? यदि स्वतन्त्र कहोगे तो जगत्माया से उत्पन्न हुआ है यह कहना झूठा होगा, और परतन्त्र कहोगे तो विभु सर्वशक्तिमान्पना कहां रहा, वह तो परतन्त्र ठहरा ? यदि यह कहोगे कि ईश्वर ने कौतुक में आके खेल किया है तो इस से आपका सर्वशक्तिमान ईश्वर राजकुमारबत् रागवान् सिद्ध होता है और जहां राग है