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का रचा हुआ है इससे शक्ति का नाम जगजननी है और वह शाक्त जन्मकाले जननी, भोगकाले मार्या और अन्तकाले कालिका है इत्यादि ईश्वरवादियों में अनेक मतमतान्तर होते भी 'जगत् का कर्ता कोई भी है' इस विषय में सभी की एक राय है। कई ईश्वरवादी तो मनुष्योत्पत्ति संबन्ध में यहांतक असंभव बात मानकर बैठे हैं कि सृष्टि के आदि में धाता अमैथुनी सृष्टि रचता है, अर्थात् पयार्य से बिचार किया जाय तो इसका अर्थ यह होता है कि ईश्वर आकाश में से खड़े खड़े युवक मनुष्य, मृत्यु लोक में उतार देता है ! देखिये ! यह उनकी बुद्धि का वैभव । किन्तु इस वारे में सत्यासत्य का विचारकरना विचारशील और सत्यग्राही सजन मनुष्यो का काम है, पक्षपाती जन इसका अन्त नहीं ला सकते ! क्यों कि प्रथम तो वे अन्य दर्शनों के धर्म ग्रंथ देखते ही नहीं, यदि दैव योग से देखने का मौका मिल भी जाय तो अविचार बुद्धि से नास्तिक ग्रन्थ कहकर अपनी टांग ऊँची रख लेते हैं किन्तु वास्तव में नास्तिक वही है कि जो एकपक्षीय धर्मग्रंथ देखकर दूसरों को नास्तिक कहने का साहस करता हो। हमारी समझ से तो अनेक शास्त्रों का अवलोकन करनेवाला, सत्यासत्य का विचार करनेवाला, और तत्त्वज्ञ मनुष्य प्रायः आस्तिक ही हो सकता है । एकपक्षीय धर्म ग्रंथ देखकर जिनको 'सर्वविद्' का अभिमान आ जाता है उनको उचित है कि:-"अनेकशास्त्राणि विलोकितानि" इस वाक्य का अध्यन करें । अनेक दर्शनों के और अनेक विषयों के ग्रन्थों का अवलोकन करने ही से मनुष्य योग्यता को प्राप्त कर सकता है और उसीको विद्वानों की श्रेणि में स्थान मिल सकता है, इसलिये पक्षाभिमान को त्यागकर अनेक ग्रंथों का अवलोकन करनाही बुद्धिमानों का कर्त्तव्य है। किन्तु जिनके विचार चिरकाल से अर्थात् पीढ़ियों से स्थिर हो रहे हैं और संस्कार भी निरन्तर वैसेही मिल रहे हैं; कि बहुना, वे अपने मन्तव्य के विरुद्ध एक वर्ण ( अक्षर) भी श्रवण करना पाप समझ रहे है। ऐसे अविचारी, अन्य दर्शनों के ग्रन्थों को कैसे पढ़ सकते हैं ? तो विचारकरना तो दूरहीरहा किन्तु ऐसे हठी लोग अविचार बुद्धि से देखे भाले विनाही नास्तिक ग्रन्थ कह दिया करते हैं, परन्तु इस बात में वे लोक बड़ी भारी भूल