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( १ ) वेश हो सकता है । प्रत्येक पदार्थ में अपना अपना गुण ठहरा हुआ है । मृत्तिका में यह गुण है कि अग्नि में रहने से कठोर और रक्तवर्ण हो जाती है परन्तु कागज़ में उक्त गुण नहीं है । वह न कठोर हो सकता है और न लाल । काष्ठ की लकड़ी दो लेकर और छीलछिलाकर परस्पर दोनों को फसादो और ठोककर चुस्त करदो जोड़ लग जायगा और परस्पर एकमें एक मिलकर एक समान होजाकगी। परन्तु धूलिपर धूलि रखने से जोड़ नहीं लगसकता, इसी तरह संसार के सर्व पदार्थों की परीक्षा करने से सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु में पृथक् पृथक् स्वाभाविक गुण रहते हैं । अनेक पदार्थ ऐसे संसार में हैं जिनके मिलने से और पृथक् पृथक् होने से अनेक नवीन स्वभाव उत्पन्न होते हैं। जैसे श्याम और पीत रंग मिलने से हरितभाव होता है । घास का बीज पृथिवी में बोने को कोई नहीं जाता; परंतु बर्षा के पानी का योग पाकर स्वतः अंकुर निकलकर घास उग जाता है । तद्वत् संसार में पदार्थों का ओत प्रोत (उलट-पलट) होकर नाना प्रकार के नवीन भाव सदा उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं। इस प्रकार की रचना को अज्ञ अथवा अल्पज्ञों ने ईश्वर की रचना समझ रक्खी है । जीव जैसा कर्म करता है तदनुसार उसको फळ स्वतः प्राप्त होता है, ईश्वर को इसमें मध्यस्थ होने की कोई आवश्यकता नहीं है। कोई ऐसा न्यायशील मनुष्य संसार में नहीं दीखता कि जो रागद्वेषरहित ईश्वर को सृष्टिकर्ता सिद्ध कर दे ! जो लोरा पक्षपातरूप कथा ओढ़कर बैठे हुए हैं वे युक्ति प्रमाण को कुछ चीज नहीं समझते। यदि वे कदाचित् लेखनीद्वारा अथवा वक्तृताद्वारा हठात् अपने मन्तव्य सिद्ध करने का प्रयत्न भी करें तो भी बुद्धिमान और विवेकी पुरुष, उस दुराग्रह को शीघ्र समझकर उनके मन्तव्य को अपने हृदय में स्थान नहीं देते !
जगत् रचना की ओर लक्ष्यपूर्वक देखा जाय तो इतनी बात अवश्य है कि कारणरूप जगत् ; अर्थात् जड, चेतन पदार्थ अनादि से है और
१ इस बात पर विशेष देखने की जिसकी इच्छा हो वह भौतिक शास्त्र देखे । २ गुदड़ी।