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जब ईश्वरवादी सर्व प्रकार से निरुत्तर हो जाते हैं तो यह कहा करते हैं कि जब ईश्वर को सृष्टि का कर्ता वा प्रेरक न मानें तो ईश्वर को कैसा माने ! और जब ईश्वर कुछ करता ही नहीं है तो ईश्वर को मानने से ही क्या लाभ होगा ? । ईश्वरवादी महाशय ! इसके उत्तर में सुनिए । ईश्वर को सांसारिक बातों का प्रेरक मानने से अथवा जगत् का कर्ता मानने से पूर्वापर विरोध आता है इसीलिए जगत् की ईश्वर को मानने वालों को निरुत्तर होना होता है अतएव ईश्वर को ध्येयरूप मानने से ईश्वर में किसी प्रकार का भी दोष नहीं आता और ध्यान का आधार ध्येयरूप मानना क्या यह लाभ नहीं है ? बल्कि एतावनमात्र ही महान् और उत्तम लाभ है।
उपसंहार।
और
' (जैन तत्त्वज्ञान) "यदि निष्पक्षपात होकर देखा जाय तो सत्य बात यह है कि, जीव और जड अनादि से मिले हुए हैं । इनका रचयिता कोई नहीं है । यौगिक और मिश्र पदार्थों के सूक्ष्म अणु-हजार, लाख, करोड, संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध कभी पृथक् २ हो भी सक्ते हैं; परंतु मूल परमाणुओं का विश्लष कभी नहीं हो सक्ता । तात्पर्य एक परमाणु के दो विभाग नहीं हो सकते । अतएव सिद्ध हुआ कि मिश्र पदार्थ विनाशशील हैं परंतु असली पदार्थ विनाशशील नहीं । जीव अनादि और अमर है। एक शरीर से दूसरा शरीर धारण करना इसका नाम मृत्यु है। वर्तमान अवस्था पूर्वकृत कर्मानुसार और आगामी अवस्था वर्तमान में किए हुए कर्मों के अनुसार होती है। आत्मा जबतक सब कर्मों से मुक्त न होगा तब तक जन्म मरण रूप चक्र में भ्रमण करता रहेगा । जैसे मनुष्य मदिरा (सुरा) के पान करने से पराधीन अर्थात् उसके नशा के आधीन हो