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समयसारः ।
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भ्यष्टंकोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावभावेनात्यंतविविक्तत्वाच्छुद्धः 1 चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणाद्दर्शनज्ञानमयः स्पर्शरसगंधवर्णनिमित्तसंवेदन परिणतत्वेपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात्परमार्थतः सदैवारूपीति प्रत्यहं स्वरूपं संचेतयमानः प्रतयामि । एवं प्रत्ययतश्च मम बहिर्विचित्रस्वरूपसंपदा विश्वे परिस्फुरत्यपि न किंचनाप्यदंसणणाणमइओ केवलदर्शनज्ञानमयः । पुनरपि किंरूपः । सदारूवी निश्चयनयेन रूपरसगंधस्पर्शाभावात्सदाप्यमूर्त्तः । णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तं
मात्र द्रव्यभी मुझे अपने भावकर नहीं प्रतिभासती जिससे कि मेरे भावकपनेसे तथा ज्ञेयंपने से मुझसे एक होकर फिर मोह उत्पन्न करे । क्योंकि मेरे निजरससे ही ऐसा महान् ज्ञान प्रगट हुआ है जिसने मोहको मूलसे उखाड़कर दूर किया है जो फिर उसका अंकुर न उपजे ऐसा नाश किया है ॥ भावार्थ — आत्मा अनादिकाल से लेकर मोहके उदयसे अज्ञानी था सो श्रीगुरुओं के उपदेशसे और अपनी काललब्धिसे ( अच्छी होनहार से ) ज्ञानी हुआ, अपने स्वरूपको परमार्थसे जाना कि मैं एक हूं शुद्ध हूं अरूपी हूं दर्शनज्ञानमय हूं । ऐसा जानने से मोहका समूल नाश हुआ, भावकभाव और ज्ञेयभाव उनसे भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभव में आई तब फिर मोह क्यों उत्पन्न होगा नहीं होसकता || अब ऐसा आत्माका अनुभव हुआ उसकी महिमा आचार्य कहके प्रेरणारूप लोक कहते हैं कि ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मामें समस्त लोक मग्न होवे ॥ मज्जंतु इत्यादि । अर्थ - यह ज्ञानसमुद्र भगवान् आत्मा विभ्रमरूप आडी चादरको समूलसे डुबोकर ( दूरकर ) आप सर्वांग प्रकट हुआ है सो अब समस्तलोक इसके शांतरसमें एकही समय अतिशयकर मग्न होवो | कैसा है शांतरस उछल रहा है ॥ भावार्थ — जैसे समुद्रकी आड़ में कुछ आजाय तब और जब आड़ दूर होजाय तब प्रगट दीखता हुआ लोकको प्रेरणा योग्य होजाता है कि इस जलमें सब लोक स्नान करो । उसीतरह यह आत्मा विभ्रमकर आच्छादित था तब इसका रूप नहीं दीखता था अब विभ्रम दूर हुआ तब यथास्वरूप प्रगट हुआ । अब इसके वीतराग विज्ञानरूप शांतरसमें एक काल सब लोक मग्न होवो ऐसी आचार्यने प्रेरणा की है । अथवा ऐसा भी अर्थ है कि जब आत्माका अज्ञान दूर होवे तब केवलज्ञान प्रकट होवे तब समस्त लोकमें ठहरे हुए पदार्थ एकही समय ज्ञानमें आय झलकते हैं उसको सब लोक देखो । इसतरह इस समय प्राभृतग्रंथ में पहले जीवाजीवाधिकार में टीकाकारने पूर्वरंगस्थल कहा || यहां टीकाकारका ऐसा आशय है कि इस ग्रंथको अलंकारकर नाटकरूप वर्णन किया है सो नाटकमें पहले रंगभूमि ( अखाडा ) रची जाती है, वहां देखनेवाला नायक तथा सभा होती है और नृत्य करनेवाले होते हैं वे अनेक स्वांग रखते हैं तथा शृंगारादिक आठ रसका रूप दिखलाते हैं । उस जगह
समस्त लोकपर्यंत जल नहीं दीखता