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________________ समयसारः। ' यतो हि द्रव्यांतरस्वभावभाविनोऽन्यानखिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाव्याप्यतया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे ततो य एव पूर्व जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्तितकव्यवहारसमर्थनरूपेण परिहारस्ततश्च गाथात्रये निश्चयस्तुतिकथनरूपेण च परिहार इति पूर्वपक्षपरिहारगाथाष्टकसमुदायेन षष्ठस्थलं गतं । अथ रागादिविकल्पोपाधिरहितं स्वसंवेदनज्ञानलक्षणप्रत्याख्यानविवरणरूपेण गाथाचतुष्टयं कथ्यते । तत्र स्वसंवेदनज्ञानमेव प्रत्याख्यानमिति कथनरूपेण प्रथमगाथा प्रत्याख्यानविषये दृष्टांतरूपेण द्वितीया चेति गाथाद्वयं । तद. नंतरं मोहपरित्यागरूपेण प्रथमगाथा ज्ञेयपदार्थपरित्यागरूपेण द्वितीया चेति गाथाद्वयं । एवं सप्तमस्थले समुदायपातनिका । तथाहि-तीर्थकराचार्यस्तुतिनिरर्थिका भवतीति पूर्वपक्षबलेन जीवदेहयोरेकत्वं कर्तुं नायातीति ज्ञात्वा शिष्य इदानी प्रतिबुद्धः सन् हे भगवन् रागादीनां किं प्रत्याख्यानमिति पृच्छति । इति पृच्छति कोर्थः इति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति । एवं प्रश्नोत्तररूपपातनिकाप्रस्तावे सर्वत्रेति शब्दस्यार्थो ज्ञातव्यः । णाणं सव्वे भावे पचक्खाई परेत्ति णादूण जानातीति व्युत्पत्त्या स्वसंवेदनज्ञानमात्मेति भण्यते तं ज्ञानं कर्तृ मिथ्यात्वरागादिभावं परस्वकिया जो आत्मा और शरीरका एकपना उसके संस्कारपनेकर अत्यंत अप्रतिबुद्ध था सो अब तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिके प्रगट उदय होनेसे नेत्रके विकारीकी तरह (जैसे किसी पुरुषके नेत्रमें विकार था तब वर्णादिक अन्यथा दीखते थे जब विकार मिट गया तब जैसेका तैसा दीखने लगा ) अच्छीतरह उघड़ गया है पटलरूप आवरणकर्म जिसका ऐसा प्रतिबुद्ध हुआ तब साक्षात् देखनेवाला अपनेको अपनेसे ही जान श्रद्धानकर उसके आचरण करनेका इच्छक हुआ पूछता है कि इस आत्मारामके अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान ( त्यागना ) क्या है उसका समाधान आचार्य कहते हैं;-[ यस्मात् ] जिस कारण [ सर्वान् भावान् ] अपने सिवाय सभी पदार्थ [परान् ] पर हैं [इति ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर [प्रत्याख्याति ] त्यागता है [ तस्मात् ] इसकारण [ज्ञानं ] पर हैं यह जानना ही [ प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान है [ नियमात् ] यह नियमसे जानना । अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है दूसरा कुछ नहीं है ॥ टीका-जिसकारण यह ज्ञाता दव्य आत्मा भगवान् है वह अन्यद्रव्यके स्वभावसे हुए अन्य समस्त परभावोंको अपने स्वभावभावकर नहीं व्याप्त होनेसे परपनेरूप जानकर त्यागता है इसकारण जिसने पहले जाना है वही पीछे त्याग करता है दूसरा तो कोई त्यागनेवाला नहीं है । ऐसें त्यागभाव आत्मामें ही निश्चयकर, त्यागके समय प्रत्याख्यान करने योग्य जो परभाव उनकी उपाधि मात्र प्रवर्ता जो त्यागके कर्तापनेका नाम उसके होनेपर भी परमार्थसे देखा जाय तब परभावके त्यागकर्तापनेका नाम अपनेको नहीं है । आप तो इस नामसे रहित है ज्ञानस्वभावसे नहीं छूटा है इसलिये प्रत्या
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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