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________________ समयसारः । ६७ त्मसंचेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टंभात्तत्संतानात्यंतविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णपरमात्मानमवाप्तः क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः । एवमेव च मोहपदपरिवर्त्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । “एकत्वं व्यवहारतो क्रमेण जितमोहस्य सतो जातस्य यदा निर्विकल्पसमाधिकाले क्षीणो मोहो भवेत्। कस्य । साधोः शुद्धात्मभावकस्य तहिया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं तदा तु गुप्तिसमाधिकाले स साधुः क्षीणमोहो भण्यते । कैर्निश्चयविद्भिः परमार्थज्ञायकैर्गणधरदेवादिभिः । इयं तृतीया निश्चयस्तुतिरिति । भाव्यभावकभावाभावरूपेण कथं जाता स्तुतिरिति साधोः ] जिसने मोहको जीत लिया है ऐसे साधुके [यदा ] जिससमय [क्षीणो मोहः ] मोह क्षीण हुआ सत्तामेंसे नाश [ भवेत् ] होता है [तदा] उस समय [निश्चयविद्भिः] निश्चयके जाननेवाले [खल] निश्चयकर [स] उस साधुको [क्षीणमोहः ] क्षीणमोह ऐसे नामसे [भण्यते] कहते हैं । टीका-इस निश्चय स्तुतिमें पूर्वोक्तविधानकर आत्मासे मोहका तिरस्कार कर जैसा कहा वैसे ज्ञान स्वभावकर अन्य द्रव्यसे अधिक आत्माका अनुभव करनेसे जितमोह हुआ, उसके जिस समयअपने स्वभावभावकी भावनाका अच्छीतरह अवलंबन करनेसे मोहकी संतानका अत्यंत विनाश ऐसा हो जाता है कि जो फिर उसका उदय नहीं होता। ऐसा भावकरूप मोह जिससमय क्षीण होता है उस समय ( भावक मोहका क्षय होने पर ) आत्माके विभावरूप भाव्यभावका भी अभाव हो जाता है । इस तरह भाव्यभावकभावके अभावसे एकपना होनेपर टंकोत्कीर्ण ( निश्चल ) परमात्माको प्राप्त हुआ "क्षीणमोह जिन" ऐसा कहा जाता है । यह तीसरी निश्चय स्तुति है ॥ भावार्थ-जिस समय साधु पहले अपने बलसे उपशमभावकर मोहको जीत पीछे जिससमय अपनी बड़ी सामर्थ्यसे मोहका सत्तामेंसे नाशकर ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है तब क्षीणमोह जिन कहा जाता है। यहां भी पूर्व कहा था उसीतरह मोहपदको पलटकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन, ये पद रखकर सोलह सूत्र पढना और व्याख्यान करना तथा इसी प्रकार उपदेशकर अन्य भी विचारना ॥ अब यहां इस निश्चय व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थके कलशरूप काव्य कहते हैं। एकत्वं इत्यादि । अर्थ-शरीरके और आत्माके व्यवहारनयकर एकपना है तथा निश्चयनयकर एकपना नहीं है । इसीलिये शरीरके स्तवनसे आत्मा पुरुषका स्तवन व्यवहारनयकर हुआ कहा जाता है और निश्चयनयसे नहीं। निश्चयसे तो चैतन्यके स्तवनसे ही चैतन्यका स्तवन होता है । वह चैतन्यका
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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