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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । अथायमेव प्रतिबोध्यते रे दुरात्मन् आत्मपंसन् जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वं । दूरनिरस्तसमस्तसंदेहविपर्यासानध्यवसायेन विश्वकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं । तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि यतो यदि कथंचइति प्रथमगाथा गता। अथास्य बहिरात्मनः संबोधनं क्रियते-रे दुरात्मन् सव्वण्ह इत्यादि सब्बण्हुणाणदिछो सर्वज्ञज्ञानदृष्टः जीवो जीवपदार्थः । कथंभूतो दृष्टः । उवओगलक्खणो केवलज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणः णिच्चं नित्यं सर्वकालं कह कथं सो स जीवः पुग्गलव्वीभूदो पुद्गलद्रव्यं जातः न कथमपि । जं येन कारणेन भणसि भणसि त्वं मज्झमिणं ममेदं पुद्गलद्रव्यं । इति द्वितीया गाथा गता । जदि इत्यादि-जदि यदि [ इदं पुद्गलद्रव्यं ] यह पुद्गलद्रव्य [ मम ] मेरा है। ऐसा नहीं है ॥ टीकाअज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको "यह मेरा है" ऐसा अनुभव करता है । वह अज्ञानी कैसा है ? अत्यंत आच्छादित हुए अपने स्वभावभावपनेकर जिसकी समस्त भेदज्ञानरूप. ज्योति अस्त होगई है। फिर कैसा है ? महा अज्ञानकर जिसका हृदय अपने आप ही विमोहित है, भेदज्ञानके विना अपना और परका भेद नहीं करके जो अपने स्वभाव नहीं हैं ऐसे विभावोंको अपने करता है । क्योंकि परभावोंके संबंधसे अपना स्वभाव अत्यंत छिप गया हैं । कैसे हैं परभाव ? एक समयमें अनेक प्रकारके बंधनकी उपाधिके अतिनिकटपनेसे प्राप्तहुए हैं । जैसे स्फटिकपाषाणमें अनेक तरहके वर्णकी निकटताकर अनेकरूपपना दीखता है स्फटिकका निज श्वेत निर्मलभाव नहीं दीखता । उसीतरह कर्मकी उपाधिसे आत्माका शुद्ध स्वभाव आच्छादित होरहा है वह नहीं दीखता । इसीकारण पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है । ऐसे अज्ञानीको समझाते हैं कि रे दुरात्मन् आत्माका घात करनेवाला तू परम अविवेककर जैसे तृणसहित सुंदर आहारको हस्तीआदि पशु खाता है उसी तरहके खानेका स्वभाव छोड़ छोड़ । जो सर्वज्ञज्ञानकर प्रगट किया नित्य उपयोग स्वभावरूप जीवद्रव्य वह कैसे पुद्गलरूप हो गया जिससे कि तू "यह पुद्गलद्रव्य मेरा है" ऐसा अनुभवता है । कैसा है सर्वज्ञका ज्ञान ? जिसने समस्त संदेहविपर्यय अनध्यवसाय दूर कर दिये है। फिर कैसा है ? समस्त वस्तुके प्रकाशनेको एक अद्वितीय ज्योति है। ऐसे ज्ञानकर दिखलाया है । और कदाचित् किसीतरह जैसे लोन तो जलरूप हो जाता है तथा जल लोनरूप हो जाता है उसीतरह जीवद्रव्य तो पुद्गलरूप होवे तथा पुद्गलद्रव्य जीवरूप होवे तो तेरी "पुद्गलद्रव्य मेरा है" ऐसी अनुभूति बन सकती है । ऐसा तो किसीतरह भी द्रव्यस्वभाव बदल नहीं सकता। ___१ आत्मविनाशक ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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