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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते तदभावादज्ञानखरशृंगश्रद्धानसमानत्वाच्छ्रद्धानमपि नोलवते तदा समस्त भावांतरविवेकेन निःशंकमेवास्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुल्लवमानं नात्मानं साधयीति साध्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तिः ! कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् । सततमनुभवामोऽनंतचैतन्यचिह्नं न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ॥२०॥ ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मात्मानं नित्यमुपास्त एव कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेन्न वेदनज्ञानेन ज्ञातव्यः । तह य तथैव सहदेव्वदवो अयमेव नित्यानंदैकस्वभावो रागादिरहितः शुद्धात्मेति निश्चेतव्यः अणुचरिदव्वो य अनुचरितव्यश्च निर्विकल्पसमाधिनानुभवनीयः । पुनः सो एव स एव शुद्धात्मा दु पुनः मोक्खकामेण मोक्षार्थिना पुरुसमान है । इसतरह श्रद्धानका भी उदय नहीं होता । उससमय समस्त अन्यभावका भेद न होनेसे निःशंक आत्मामें ठहरनेके असमर्थपनेसे आत्माका आचरण न होने पर आत्माको नहीं साध सकता । इस तरह साध्य आत्माकी सिद्धिकी अन्यथा अनुपपत्ति अर्थात् दूसरीतरह असिद्धि है ॥ भावार्थ-साध्य आत्माकी सिद्धि दर्शनज्ञानचारित्रकर ही है दूसरीतरह नहीं । क्योंकि पहले तो आत्माको जानें कि यह जाननेवाला अनुभवमें आता है “वह मैं हूं” उसके वाद इसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है । विना जाने श्रद्धान किसका ? । फिर समस्त अन्यभावोंसे भेद करके अपने में स्थिर होवे ऐसी सिद्धि है । जब जानेगा ही नहीं तब श्रद्धान भी नहीं हो सकेगा । तब स्थिरता किसमें कर सकता है । इसलिये दूसरी तरह सिद्धि नहीं है ऐसा निश्चय है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । " कथमपि” इत्यादि । अर्थ - आचार्य कहते हैं कि इस आत्मज्योतिको हम निरंतर अनुभवते हैं । जो आत्मज्योति, अनंत अविनश्वर चैतन्य चिन्हवाली है क्योंकि इसके अनुभवविना अन्यरीति से साध्य आत्माकी सिद्धि नहीं है । जिस आत्मज्योतिने किसी तरह तीनपना अंगीकार किया है तौभी वह एकपनेसे रहित नहीं हुई तथा निर्मल उदयको प्राप्त हुई है । भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि जिसके किसीतरह पर्यायदृष्टिकर तीनपना प्राप्त है तौ भी शुद्धद्रव्यदृष्टिकर जो एकप रहित नहीं हुई तथा अनंत चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयको प्राप्त हुई ऐसी आत्मज्योतिका हम निरंतर अनुभव करते हैं । ऐसा कहनेसे यह आशय भी जानना कि जो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं वे ऐसे ही अनुभव करें कि जैसे हम अनुभव करते हैं । अब कोई प्रश्न करे कि आत्मा तो ज्ञानसे तादात्म्यस्वरूप है जुदा नहीं है इसलिये ज्ञानको नित्य सेवे ही है फिर ज्ञानकी ही उपासना करनेकी शिक्षा क्यों दी जाती है ? उसका समाधान आचार्य कहते हैं—यह कहना ठीक नहीं यद्यपि आत्मा ज्ञानसे तादात्म्यरूप है तौ भी एक क्षणमात्र भी ज्ञानको नहीं सेवता । इसके ज्ञानकी उत्पत्ति आप ही जाननेसे अथवा ४८
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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