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प्रस्तावना]
समयसारः। कथन है परंतु जहां जहां अशुद्धनयरूप व्यवहारनयका गौणतासे कथन है वहा आचार्य ऐसाभी कहते आये हैं कि पहिली अवस्थामें यह व्यवहारनय हस्तावलंबरूप है अर्थात् ऊपर चढनेको पैड़ीरूप है इसलिये कथंचित् कार्यकारी है। इसको गौण करनेसे ऐसा मत जानना कि आचार्य व्यवहारको सर्वथा ही छुड़ाते हैं, आचार्य तो ऊपर चढनेके लिये नीचली पैड़ी छुड़ाते हैं । जब अपने स्वरूपकी प्राप्ति होजायगी तब तो शुद्ध अशुद्ध दोनोंही नयोंका आलंबन छूट जायगा । नयका आलंबन तो साधक अवस्थामें है । ऐसें ग्रंथमें जहां जहां कथन है उसको यथार्थ समझनेसे श्रद्धानका विपर्यय नहीं होगा। जो यथार्थ समझेंगे उनके व्यवहार चारित्रसे अरुचि नहीं होगी। और जिनकी होनहार ( भवितव्य ) ही खोटी है वे तो शुद्धनय सुनें अथवा अशुद्धनय सुनें विपरीत ही समझेंगे । उनको तो सब ही उपदेश निप्फल है ।
यहां तीन प्रयोजन मनमें विचारके प्रारंभ किया है । प्रथम तो अज्ञमति वेदांती तथा सांख्यमती आत्माको सर्वथा एकांतपक्षसे शुद्ध नित्य अभेदरूप एक ऐसे विशेषणोंकर कहते हैं, और ऐसा कहते हैं कि जैनी कर्मवादी हैं इनके आत्माकी कथनी नहीं है। आत्मज्ञानके विना वृथा कर्मका क्लेश करते हैं आत्माको विना. जाने मोक्ष नहीं हो सकती । जो कर्ममें ही लीन हैं उनके संसारका दुःख कैसे मिट सकता है? । तथा ईश्वरवादी नैयायिक कहते हैं कि ईश्वर सदा शुद्ध है नित्य है सब कार्योंके प्रति एक निमित्त कारण है उसके विना जाने व उसको भक्तिभावसे विना ध्याये संसारी जीवकी मोक्ष नहीं, ईश्वरका शुद्ध ध्यानकर उसीसे लय लगाये तभी मोक्ष हो सकती है, जैनी ईश्वरको तो मानते ही नहीं हैं जीवको ही मानते हैं सो जीव तो अज्ञानी है असमर्थ है आप ही अहंकारसे ग्रस्त है सो अहंकारको छोड़के ईश्वरका ध्यावना जैनियोंके नहीं है इसलिये इनके मोक्ष ही नहीं इत्यादिक कहते हैं । सो लौकिकजन उनके मतके हैं उनमें यह प्रसिद्धि कर रक्खी है। वे जिनमतकी स्याद्वादकथनीको तो समझे ही नहीं हैं परंतु प्रसिद्ध व्यवहार देख निषेध करते हैं । उनका निषेध (खंडन) शुद्धनयकी कथनीके प्रगट हुए विना नहीं हो सकता । यदि यह कथनी प्रगट न हो तो भोले जीव अन्यमतियोंका कथन सुनें तब भ्रम उत्पन्न होजाय श्रद्धानसे चिगजांय इस लिये यह कथन प्रगट किया है इसके प्रगट होनेसे श्रद्धानसे नहीं चिग सकते । एक तो यह प्रयोजन है। ___ दूसरा यह है कि इस ग्रंथकी वचनिका पहले भी हुई है उसके अनुसार बनारसीदास कविवरने कलशोंके कवित्त भाषामें बनाये हैं वे खमत परमतमें प्रसिद्ध हुए हैं परंतु उनमें सामान्य अर्थ ही लोक समझते हैं विशेष समझे विना किसीके पक्षपात भी हो जाता है । तथा उन कवित्तोंको अन्यमती पढकर अपने मतके अर्थमें मिला लेते हैं। सो विशेष अर्थ समझे विना यथार्थ होता नहीं भ्रम मिटता नहीं । इसलिये इस क्च