________________
परिशिष्टम् ]
समयसारः ।
५६५
क्वचिन्मे च कामेचकं कचित् पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम । तथापि न विमोहयत्य मलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत् ॥ २७२ ॥ इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात् । इतः परमविस्तृतं घृतमितः प्रदेशैर्निजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवं ॥ २७३ ॥ कषायकलिरेकतः स्खलति शांतिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्रितयमेकतः स्फुरति कहा जाता है उस मात्र ही ज्ञान मात्र कहा जाता है । सो अनुभव करनेवाला इसीतरह अनुभव करे कि ऐसा ज्ञानभाव यह मैं हूं । अब २७२ वें काव्यसे कहते हैं कि अनुभवकी दशा में अनेकरूप दीखते हैं तो भी यथार्थ ज्ञाता निर्मल ज्ञानको नहीं भूलता कचिल्ल इत्यादि । अर्थ - अनुभव करनेवाला कहता है कि मेरा आत्मतत्त्व कभी तो अनेकाकार दीखता है, कभी अनेकाकार रहित शुद्ध एकाकार दीखता है, कभी दोनोंरूप दीखता है । तो भी जो निर्मल बुद्धि हैं उनके मनको भ्रमरूप नहीं करता, क्योंकि वह परस्पर अच्छी तरह मिलीं जो प्रगट अनेक शक्तियां उनके समूहस्वरूप स्फुरायमान होता है || भावार्थ — आत्मतत्त्व अनेक शक्तियों को लिये हुए है इसलिये किसी अवस्था में कर्म के उदयके निमित्तसे अनेक आकार अनुभव में आते हैं, किसी अवस्था में शुद्ध एकाकार अनुभव में आता है, और किसी अवस्था में शुद्धाशुद्धरूप अनुभमें आता है तौभी यथार्थ ज्ञानी स्याद्वाद के बलकर भ्रमरूप नहीं होता जैसा है वैसाही मानता है ज्ञानमात्र से च्युत नहीं होता || अब २७३ काव्यसे कहते हैं कि अनेकरूपको धारता यह आत्माका अद्भुत आश्चर्यकारी विभव है - इतो इत्यादि । अर्थ - अहो ! बड़ा आश्चर्यकारी यह आत्माका स्वाभाविक अद्भुत विभव है कि एकतरफ देखो तो अनेकताको धारण करता है, यह पर्यायदृष्टि है । एक तरफ देखिये तो सदा ही एकता हो धारता है, यह द्रव्यदृष्टि है । एकतरफ देखाजाय तो क्षणभंगुर है, यह क्रमभावी पर्यायदृष्टि है । एकतरफ देखा जाय तो ध्रुव दीखता है, यह सहभावी गुणदृष्टि है क्योंकि सदा उदयरूप दीखती है । एकतरफ देखिये तो परमविस्तार स्वरूप दीखता है, यह ज्ञान अपेक्षा सर्वगत दृष्टि है । और एकतरफ देखिये तो अपने प्रदेशों कर ही धारण किया जाता है, यह प्रदेशोंकी अपेक्षा दृष्टि है । ऐसे आश्चर्यरूप विभबको आत्मा धारण करता है । भावार्थ - यह द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मा वस्तुका स्वभाव है सो जो पूर्व अज्ञानी हैं उनके ज्ञानमें आश्चर्य उपजाता है कि असंभवसी बात हैं । और ज्ञानियोंके वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं है तौभी अद्भुत परम आनंद ऐसा होता है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, यह आश्चर्य भी उपजता है । फिर इसी अर्थरूप २७४ वां काव्य है— कषाय - इत्यादि । आत्मा के स्वभावकी महिमा अद्भुत अद्भुत विजयरूप प्रवर्तती है किसीकर बाधी नहीं जाती । कैसी है ? एकतरफ देखिये तो कषायों का क्लेश दीखता है, एकतरफ देखिये तो कषायों का उपशमरूप शांतभाव है, एकतरफ देखिये तो संसारसंबंधी पीडा दीखती है, एकतरफ देखिये तो संसारका