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________________ ५५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ परिशिष्टम् अगुरुलघुत्वशक्तिः । क्रमाक्रमवृत्तित्वलक्षणोत्पादव्ययध्रुवत्वशक्तिः । द्रव्यस्वभावभूतधौव्यव्ययोत्पादलिंगितसदृशविसदृशरूपैकाऽस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्तिः । कर्मबंधव्यपगमव्यंजितसहजस्पर्शादिशून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्तिः । सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणामकरणोपरमात्मिका अकर्तृत्वशक्तिः । सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणामानुभवोपरमात्मिका अभोक्तृत्वशक्तिः । सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेशनैष्पंद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः । आसंसारसंहरणविस्तरणलक्षितकिंचिदूनचरमशरीरपरिणामावस्थितकिं कर्तव्यं ? सहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं निजनिरंजनशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानंदरूपसुजस्वरूपकी प्रतिष्ठाका कारण विशेष अगुरु लघुत्वनामा गुण उस स्वरूप अगुरुलघुत्वनामा सत्रहवीं शक्ति है। इस षट्स्थान पतित हानि वृद्धिका स्वरूप गोमटसार ग्रंथसे जानना, यह अविभाग प्रतिच्छेदकी संख्यारूप षट्स्थानोंकर वस्तुस्वभावका घटना बढना वस्तुके स्वरूपको ठहरानेका कारण ऐसा ही कोई गुण है उसको अगुरुलघुगुण कहते हैं सो यह भी शक्ति आत्मामें है ॥ क्रमा इत्यादि । अर्थ-क्रमवृत्तिरूप पर्याय अक्रमवृत्तिरूप गुण उनका वर्तना जिसका लक्षण है ऐसी उत्पादव्यय-ध्रुवत्वनामा अठारवीं शक्ति है, क्रमवर्ती पर्याय तो उत्पादव्ययरूप होते हैं और सहवर्ती गुण ध्रुवरूप रहते हैं। द्रव्य इत्यादि । अर्थ-द्रव्यके स्वभावभूत ऐसे ध्रौव्य व्यय उत्पादोंकर स्पर्शित जो समानरूप व असमानरूप परिणाम उनस्वरूप एक अस्तित्वमात्रमयी परिणाम शक्ति उन्नीसवीं है । कर्मबंधके अभावकर व्यक्त हुआ जो स्वभावसे ही स्पर्शरस गंध-वर्णकर रहित आत्माका प्रदेश उस स्वरूप अमूर्तत्व नामा शक्ति वीसमी है । सकल इत्यादि । अर्थ-सब कर्मोंकर किये गये ज्ञातापनेमात्रसे भिन्न परिणाम उनके करनेका अभावस्वरूप अकर्तृत्वशक्ति इक्कीसवीं हैं, आत्मा ज्ञातापने सिवाय कर्मकर किये परिणामोंका कर्ता नहीं है यह भी इसमें शक्ति है । सकल इत्यादि । अर्थ-सकल कोंकर किये ज्ञातापने मात्रसे जुदे जो परिणाम उनके नहीं भोगनेरूप अभोक्तृत्व नामा बाईसमी शक्ति है । आत्मा ज्ञातापनेके सिवाय कर्मके किये अन्य परिणामोंका भोक्ता नहीं है यह भी इसमें शक्ति है। सकल इत्यादि । अर्थ-सब कर्मों के अभावसे प्रवृत्त हुआ जो आत्माके प्रदेशोंका निश्चलपना उसस्वरूप तेईसवीं निष्क्रियत्वशक्ति है । सब कर्मोंका जब अभाव होता है तब प्रदेशोंका कंप मिट जाता है इसलिये यह शक्ति भी इसमें है ॥ आसंसार इत्यादि । अर्थ-अनादि संसारसे लेके संकोचविस्तारसे चिह्नित और किंचित् ऊन चरम शरीर प्रमाणकर अवस्थित ऐसे दोनों भावोंको लिये हुए लोकाकाश परिमाणस्वरूप अवयवपना जिसका लक्षण है ऐसी नियत प्रदेशत्वशक्ति चौवीसवीं है । आत्माके लोकपरिमाण असंख्यात प्रदेश नियत हैं वे संसार अवस्थामें चरम
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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