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________________ परिशिष्टम् ] समयसारः। ५४५ स्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यंतश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात्, बहिरुन्मिषदनंतज्ञेयतापनखरूपातिरिक्ताररूपेणातत्त्वात् , सहक्रमप्रवृत्तानंतचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात् , अविभागैकद्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानंतचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात् खद्रव्यक्षेत्रकालभवभवनशक्तिखभाववत्त्वेन संत्त्वात् परद्रव्यक्षेत्रकालभवभवनशक्तिखभाववत्त्वेनाऽसत्त्वात् अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव । ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तुनः स्वयमेवानेकांतः प्रकाशते तर्हि किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनाऽनुशास्यतेऽनेकांतः १ । अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्ध्यर्थमिति ब्रूमः । अनेकांत इति कोऽर्थः ? इति चेत् एकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादक-अस्तित्वनास्तित्वद्वयादिस्वरूपं परस्परविरूद्धसापेक्षशक्तिद्वयं यत्तस्य प्रतिपादने स्यादनेकांतो भण्यते । सचानेकांतः किं करोति ? इसकी व्यवस्था कहते हैं-स्याद्वाद है वह सब वस्तुके साधनेवाला एक निर्बाध अर्हत्सर्वज्ञका शासन ( मत ) है वह स्याद्वाद सब वस्तुओंको अनेकात्मक कहता है क्योंकि सभी पदार्थोंका अनेक धर्मरूप स्वभाव है । असत्यार्थ कल्पना कर नहीं कहता जैसा वस्तुका स्वभाव है वैसा ही कहता है । यहां आत्मानामक वस्तुको ज्ञानमात्रपनेकर कहनेसे स्याद्वादका कोप नहीं है ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके भी स्वयमेव अनेकांतात्मकपना है वह कैसा है ? यही कहते हैं । अनेकांतका ऐसा स्वरूप है कि जो वस्तु सत्स्वरूप है, वही वस्तु असत्स्वरूप है, जो वस्तु नित्यस्वरूप है वही वस्तु अनित्यस्वरूप है । इस तरह एक वस्तुमें वस्तुपनेकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियां अपने आत्मवस्तुके ज्ञानमात्रपने होनेपर भी पाई जाती हैं । यही कहते हैं-आत्माका ज्ञानमात्रपना होनेसे भी अंतरंगमें प्रकाशमान ज्ञानस्वरूपकर तो तत्स्वरूपपना है और बाह्य उघड़ते अनंत ज्ञेयभावको प्राप्त ज्ञानस्वरूपसे भिन्न जो परद्रव्योंके रूप उनकर अतत्स्वरूपपना है उन खरूप ज्ञान नहीं है । सहभूत प्रवर्तते और क्रमरूप प्रवर्तते जो अनंत चैतन्यके अंश उनके समुदायरूप अविभागरूप जो द्रव्यपना उसकर तो एकपना है तथा अविभाग एक द्रव्यमें व्याप्त जो सहभूत प्रवर्तते वा क्रमरूप प्रवर्तते चैतन्यके अनंत अंशोस्वरूप पर्यायोंकर अनेकपना है । अपने द्रव्य क्षेत्रकाल भावरूप होनेकी शक्तिके स्वभावपनेकर सत्त्वस्वरूप है और परके द्रव्य क्षेत्र काल भाव होनेकी शक्तिके स्वभावपनेके अभावसे असत्त्वस्वरूप है। अनादि निधन अविभाग एक वृत्तिरूप परिणमनपनेकर नित्यपने स्वरूप है और क्रमकर प्रवर्तते एक समयमें अनेक वृत्तियोंके अंश उनकर परिणमनपनेसे अनित्यपना स्वरूप है । इसतरह तत्पना अतत्पना एकपना अनेकपना सत्पना असत्पना नित्यपना अनित्यपना प्रकट प्रकाशता ही है । यहां तर्क, यदि आत्मवस्तुके ज्ञानमात्रपना होनेपर भी स्वयमेव अनेकांत प्रकाशता है तो अहंत भगवान् ६९ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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