SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ सर्वविशुद्धज्ञान स्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारंभेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षणविजृंभमाणचिदेकरसनिर्भरस्वभावसुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानंदशब्दवाच्यमुत्तममना DI : करणात् अतींद्रियसुखे संदेहो न कर्तव्य इति । उक्तं च यद्देवमनुजाः सर्वे सौख्यमक्षार्थ संभवं । निर्विशंति निराबाधं सर्वाक्षप्रीणनक्षमं ॥ १ ॥ सर्वेणातीतकालेन यच भुक्तं महर्द्धिकं । भाविनो ये च भोक्ष्यंति स्वादिष्टं स्वांतरंजकं ॥ २ ॥ अनंतगुणिनं तस्मादत्यक्षं स्वस्वभावजं । एकस्मिन् समये भुंक्ते तत्सुखं परमेश्वरः ॥ ३ ॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विष्णुकर्तृत्वनिराकरणमुख्यत्वेन गाथासप्तकं । तदनंतरमन्यः करोति अन्यो भुंक्ते - इति बौद्धमतेकांत निराकरणमुख्यत्वेन गाथाचतुष्टयं । ततः परमात्मा रागादिभावकर्म न करोति इति स - ख्यमतनिराकरणरूपेण सूत्रपंचकं । ततः परं कर्मैव सुखादिकं करोति न चात्मेति पुनरपि सांख्यमतैकांतनिराकरणमुख्यत्वेन गाथात्रयोदश । तदनंतरं चित्तस्थरागस्य घातः कर्तव्य इत्यजानन्बहिरंगशब्दादिविषयाणां घातं करोमीति योऽसौ चिंतयति तत्संबोधनार्थ गाथासप्तकं । तदनंतरं द्रव्यकर्म व्यवहारेण करोति भावकर्म निश्चयेन करोतीति मुख्यत्वेन गाथासप्तकं । ततः परं ज्ञानं ज्ञेयरूपेण न परिणमति इति कथनरूपेण सूत्रदशकं । तदनंतरं शुद्धात्मोपलब्धिरूपनिश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनाचारित्रव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रचतुष्टयं । तदनंतरं पंचेद्रियविषयनिरोधकथनरूपेण सूत्रदशकं । तदनंतरं कर्मचेतनाकर्मफलचेतनाविनाशरूपेण मुख्यत्वेन शब्दब्रह्म परब्रह्मको ( शुद्ध परमात्माको ) साक्षात् दिखलाता है । जो इस शास्त्रको पढकर इसके यथार्थ अर्थमें ठहरेगा वह परब्रह्मको पायेगा । इसीसे परमानंदरूप स्वात्मीक स्वाधीन बाधारहित ( अविनाश ) उत्तम सुखको पायेगा । इसलिये हे भव्य जीवो ! तुम अपने कल्याणकेलिये इसको पढो सुनो निरंतर इसीका ध्यान रखो जिससे कि अविनाशी सुखकी प्राप्ति हो । यह श्रीगुरुओंका उपदेश है | अब इस सर्व विशुद्ध ज्ञानके अधिकारकी पूर्णताका कलशरूप २४६ वां लोक कहते हैं - इतीद इत्यादि । अर्थ- - इसप्रकार यह आत्माका परमार्थभूत स्वरूप ज्ञानमात्र ही निश्चित ठहरा | कैसा है ज्ञानमात्रतत्त्व ? अखंड है अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोंकर तथा प्रतिपक्षी कमकर यद्यपि खंड दीखता है तौभी ज्ञानमात्रमें खंड नहीं है इसीसे एकरूप है, अचल है ज्ञानरूपसे चल नहीं होता ज्ञेयरूप नहीं होता, अपने आपकर ही आप जानने योग्य है और किसी खोटी युक्तिकर बाधा नहीं जाता ॥ भावार्थ - यहां आत्माका निजस्वरूप ज्ञान ही कहा है । आत्मामें अनंत धर्म हैं उनमें कोई तो साधारण हैं वे अतिव्याप्तिस्वरूप हैं। उनसे आत्मा पहचाना नहीं जाता। कोई पर्यायाश्रित हैं किसी अवस्था में हैं किसीमें नहीं हैं वे अव्याप्तिस्वरूप हैं उनसे भी आत्मा नहीं पहचाना जाता । तथा चेतनता यद्यपि लक्षण है तो भी शक्तिमात्र है वह अदृष्ट है इसलिये उसकी व्यक्ति दर्शनज्ञान हैं । उनमें से
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy