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________________ अधिकारः ९] समयसारः। ५३५ विहर । तथा ज्ञानरूपमेकमेवाचलितमवलंबमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावस्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि मा विहार्षीः । “एको मोक्षपथो य एष नियतो हरज्ञतिवृत्तात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति । तस्मिन्नेव निरंतरं विहरति द्रव्यांतराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विंदति ॥ २४०॥ ये त्वेनं परिहृत्य संवृत्तिपथप्रस्थापितेनात्मना लिंगे द्रव्यमये च हंति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः । मोक्षपथं चेतयस्व परमसमरसीभावेन अनुभवस्व झायहि तं चेव तमेव ध्याय निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावय । तत्थेव विहर णिचं तत्रैव विहर वर्तनापरिणति कुरु । नित्यं सर्वकालं । मा विहरसु अण्णद्व्वेसु दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादिपरद्रव्यादर्शन ज्ञानचारित्रमें ही विहार कर । उसीतरह तू एक ज्ञानरूपको ही निश्चलरूप अवलंबन करता ज्ञेयरूपकर ज्ञानमें उपाधिपनेसे सब तरफ आ पड़े जो सभी द्रव्य उनमें किंचितमात्र भी विहार मतकर ॥ भावार्थ-परमार्थरूप आत्माका परिणाम दर्शन ज्ञानचारित्र हैं वे ही मोक्षमार्ग हैं उनमें ही आत्माको स्थापन करना, उनका ही ध्यान करना, उन्हींका अनुभव करना, और उन्हीं में प्रवर्तना अन्यद्रव्यों में नहीं प्रवर्तना यही परमार्थकर उपदेश है, केवल व्यवहारमें ही मूढ न रहना ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप २४० वां काव्य कहते हैं-एको मोक्ष इत्यादि । अर्थ-दर्शन ज्ञानचारित्रस्वरूप यही एक मोक्षका मार्ग है। जो पुरुष उसीमें तिष्ठता है, उसीको निरंतर ध्याता है, उसीका अनुभव करता है और अन्यद्रव्योंको नहीं स्पर्शता उसीमें निरंतर प्रवर्तता है वह पुरुष थोड़े ही कालमें अवश्य समयसार अर्थात् जिसका निय उदय रहे ऐसे परमात्माके रूपको अनुभवता (पाता) है ॥ भावार्थ-निश्चय मोक्षमार्गके सेवनसे थोड़े कालमें ही मोक्षकी प्राप्ति होती है यह नियम है ॥ आगे कहते हैं कि जो द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग मानकर उसमें ममत्व रखते हैं वे मोक्षको नहीं पाते उसकी सूचनाका २४१ वां काव्य है-ये त्वेनं इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहारमार्गमें स्थापन किये आत्माकर ही बाह्यभेषमें ममता करते हैं अर्थात् यह जानते हैं कि यही हमको मोक्ष प्राप्त करेगा वे पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानसे रहित- हुए मुनिपद लेनेसे भी इस समयसारको नहीं पाते । कैसा है समयसार? जिसका नित्य उदय है कोईभी विरोधी होके उसके उदयका नाश नहीं कर सकता, अखंड है जिसमें अन्यज्ञेय आदिके निमित्तसे खंड नहीं होता, एक है अर्थात् पर्यायोंकर अनेक अवस्थायें होती हैं तौभी एक रूपपनेको नहीं छोड़ता, जिसके समान अन्य नहीं ऐसा जिसका प्रकाश है सूर्यादिकके प्रकाशकी ज्ञानके प्रकाशको उपमा नहीं लग सकती । अपने स्वभावकी प्रभाका प्राग्भार १ तत्त्वज्ञानबहिर्भूता इत्यर्थः।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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